( एल.एस. बिष्ट ) -संसद से लेकर सडक तक और आम आदमी से लेकर खास आदमी तक अगर कोई चीज चर्चा मे है तो वह है देश के सामाजिक परिवेश को लेकर उठा सहिष्णुता बनाम असहिष्णुता का मुद्दा । कुछ राजनीति दलों व समाज के एक छोटे वर्ग को महसूस होता है कि देश का सामाजिक परिवेश बिगड रहा है । इन्हें धार्मिक आधार पर आक्रामक होता समाज दिखाई दे रहा है । यहां गौरतलब यह है कि असहिष्णुता को देश मे अल्पसंख्यक वर्ग के हितों से जोड कर देखा जा रहा है । लेकिन आशचर्यजनक रूप से इस बहस मे उन लोगों की पीडा को सिरे से दरकिनार कर दिया गया है जो सही अर्थों मे असहिष्णुता के शिकार बने तथा आज भी उस दंश को झेलने के लिए अभिशप्त हैं ।
क्या यह कम अचरज की बात नही कि कश्मीर घाटी से कश्मीरी पंडितों के पलायन व उनके नरसंहार को पूरी तरह नजर-अंदाज किया जा रहा है । इनके पलायन को मानो एक साधारण घटना स्वीकार कर लिया गया हो । अतीत मे देखें तो कश्मीर घाटी से कश्मीरी पंडितों का पलायन असहिष्णुता का सबसे अच्छा उदाहरण है । एक क्षेत्र विशेष से एक वर्ग विशेष के लोगों को बल पूर्वक बाहर कर देना क्या असहिष्णुता नही है ? बात यही तक नही है । अभी कुछ समय पूर्व जब कश्मीरी पंडितों को दोबारा घाटी मे बसाये जाने की बात कही गई तब वहां के एक वर्ग और अलगाववादी नेताओं ने आसमान सर पर उठा लिया था ।
घाटी मे सक्रिय लगभग सभी अलगाववादी गुटों का मानना है कि अगर कश्मीरी पंडित घाटी मे अपने पुश्तैनी घरों मे आना चाहें तो बहुत अच्छा है लेकिन उनके लिए अलग कालोनी बनाये जाने से इजराइल और फलस्तीन जैसे हालात पैदा हो जायेंगे । जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट हो या आल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेस के गिलानी सभी इसका एक स्वर से विरोध कर रहे हैं । जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के मुहम्मद यासीन मलिक ने तो यहां तक कहा कि मुफ्ती मोहम्मद सईद अब यहां आर.एस.एस. के ऐजेंडे को लागू करने जा रहे हैं ।
यह सब देखते हुए तो कश्मीरी पंडितों को घाटी मे दोबारा बसाना सरकार के लिए आसान काम तो कतई नही दिख रहा । लेकिन दूसरी तरफ पिछ्ले 25 सालों से वनवास झेल रहे इन वाशिंदों को फिर इनके घरोंदों मे बसाना भी जरूरी है । आखिर यह कब तक दर-दर की ठोकरें खाते रहेंगे । सवाल यह भी कि आखिर क्यों ।
शरणार्थी शिविरों मे तमाम परेशानियों के बीच इनकी एक नई पीढी भी अब सामने आ गई है और वह जिन्होने अपनी आंखों से उस बर्बादी के मंजर को देखा था आज बूढे हो चले हैं । लेकिन उनकी आंखों मे आज भी अपने घर वापसी के सपने हैं जिन्हें वह अपने जीते जी पूरा होता देखना चाहते हैं । इधर केन्द्र मे भाजपा सरकार के सत्ता मे आने के बाद और फिर जम्मू-कश्मीर मे भाजपा की सरकार मे साझेदारी ने इनकी उम्मीदों को बढाया है । इन्हें लगने लगा है कि मोदी सरकार कोई ऐसा रास्ता जरूर निकालेगी जिससे वह अपने उजडे हुए घरोंदों को वापस जा सकेंगे ।
दर-असल घाटी मे कभी इनका भी समय था । डोगरा शासनकाल मे घाटी की कुल आबादी मे इनकी जनसंख्या का प्रतिशत 14 से 15 तक था लेकिन बाद मे 1948 के मुस्लिम दंगों के समय एक बडी संख्या यहां से पलायन करने को मजबूर हो गई । फिर भी 1981 तक यहां इनकी संख्या 5 % तक रही । लेकिन फिर आंतकवाद के चलते 1990 से इनका घाटी से बडी संख्या मे पलायन हुआ । उस पीढी के लोग आज भी 19 जनवरी 1990 की तारीख को भूले नही हैं जब मस्जिदों से घोषणा की गई कि कश्मीरी पंडित काफिर हैं और वे या तो इस्लाम स्वीकार कर लें या फिर घाटी छोड कर चले जाएं अन्यथा सभी की हत्या कर दी जायेगी । कश्मीरी मुस्लिमों को निर्देश दिये गये कि वह कश्मीरी पंडितों के मकानों की पहचान कर लें जिससे या तो उनका धर्म परिवर्तन कराया जा सके या फिर उनकी हत्या । इसके चलते बडी संख्या मे इनका घाटी से पलायन हुआ । जो रह गये उनकी या तो ह्त्या कर दी गई या फिर उन्हें इस्लाम स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पडा ।
इसके बाद यह लोग बेघर हो देश के तमाम हिस्सों मे बिखर गये । अधिकांश ने दिल्ली या फिर जम्मू के शिविरों मे रहना बेहतर समझा । इस समय देश मे 62,000 रजिस्टर्ड विस्थापित कश्मीरी परिवार हैं । इनमे लगभग 40,000 विस्थापित परिवार जम्मू मे रह रहे हैं और 19,338 दिल्ली मे । लगभग 1,995 परिवार देश के दूसरे हिस्सों मे भी अपनी जिंदगी बसर करने को मजबूर हैं ।
दुर्भग्यपूर्ण तो यह है कि जहां पूरे देश मे असहिष्णुता पर बहस चल रही है । देश के बहुसंख्यक वर्ग को इसके लिए कटघरे मे खडा किया जा रहा वहीं दूसरी तरफ सही अर्थों मे असहिष्णुता के शिकार बने कश्मीरी पंडितों के दर्द और बेचारगी पर कोई मुखर हो बोलने को तैयार नही । सवाल उठता है कि आखिर कब तक घाटी का माहौल उनके लिए असहिष्णु बना रहेगा, क्या इस पर भी कभी कोई राजनीतिक दल व बुध्दिजीवी विचार करने की जहमत उठायेगा ।
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