सोमवार, 5 अक्टूबर 2015

बडी त्रासदी की छोटी खबरें


( एल.एस. बिष्ट ) - दूरदर्शन के विभिन्न चैनलों व अखबारों के माध्यम से जनता तक पहुंचने वाली तमाम खबरों के सैलाब पर जरा  गौर करें तो एक विलक्षण पहलू सामने आता है | कई बार बडी व महत्वपूर्ण कही जाने वाली खबरें प्रसारित व प्रकाशित होने के बाद उतनी बडी व महत्वपूर्ण नही लगतीं जितनी प्रचारित की जा रही थीं | बहुधा ‘ ब्रेकिंग न्यूज ‘ के नाम पर चित्कार करने वाली खबरें जब पूरे विस्तार से सामने आती हैं तो अक्सर छोटी और मामूली होने का एहसास देती हैं | वहीं दूसरी तरफ़ कुछ ऐसी भी खबरें होती हैं जिन पर इलेक्ट्रानिक मीडिया मे तो चर्चा तक नही होती | अलबत्ता  अखबारों के किसी कोने मे जरूर अपनी जगह बना लेती हैं | यही छोटी खबरें बडी होने के बाबजूद उपेक्षा का शिकार होकर रह जाती हैं | जबकि इन्हीं खबरों के अंदर हमारे समाज की सही तस्वीर छुपी होती है |
     अभी हाल मे, गांधी जयंती के दिन एक ऐसी ही खबर अखबार के एक कोने से झांकती नजर आई | दिल दहला देने वाली यह खबर उत्तर प्र्देश के हाथरस से जुडी थी | यहां दुष्कर्म पीडिता सहित उसके पूरे परिवार ने असमय ही मौत को स्वेच्छा से गले लगा दिया |
     खबर के अनुसार एक तीस वर्षीय महिला रितु अग्रवाल ने कुछ सप्ताह पहले एक व्यक्ति पर यौन शोषण का मुकदमा दर्ज कराया था | लेकिन तमाम प्रयासों के बाबजूद आरोपी खुले आम घूमता रहा | इस बीच समाज के तानों से तंग आकर उसके पति ने आत्महत्या कर ली | 28 सिंतबर को तेरहवीं के दिन नाते-रिश्तेदारों ने भी महिला को कोसते हुए उसे उसके पति की आत्महत्या के लिए जिम्मेदार ठहराया | एक तरफ़ आरोपी का खुले आम घुमना और दूसरी तरफ़ समाज के ताने | अंतत: उसने अपने सात वर्षीय बेटे व ग्यारह वर्षीय बेटी को अपने सीने से चिपका कर और फ़िर मिट्टी का तेल डाल कर आग लगा दी | इस तरह पूरा परिवार ही खत्म हो गया |
     इस तरह की यह कोई पहली घटना भी नही है | अक्सर अखबारों के किसी कोने मे इस तरह की घटनाएं छ्पती रहती हैं | दुष्कर्म हादसे का शिकार हुई तमाम युवतियों ने सामाजिक तानों से तंग आकर आत्मग्लानी मे इसी तरह मृत्यु को गले लगाया | कभी कधार किन्हीं कारणों से दो-एक घटनाएं चर्चा मे आ जाती हैं अन्यथा बिना शोर शराबे के यह घटनाएं समय के साथ भुला दी जाती हैं | जिन कारणों से यह युवतियां मृत्यु को गले लगाती हैं वह कारण वैसे ही बने रहते हैं  और कोई दूसरी दुष्कर्म पीडिता उसका शिकार बनती है | यह सिलसिला चलता रहता है |
     दर-असल महिला सशक्तिकरण के नारों और पाखंडपूर्ण व्यवहार से अलग हट कर देखें तो इन घटनाओं के लिए दो ही कारक जिम्मेदार हैं | पहला हमारी कानून व्यवस्था जिसमे पुलिसिया कार्य शैली भी शामिल है और दूसरा स्वंय समाज | कानून अपना काम करता नही | वह अपराधी का सगा बनने मे अपने को ज्यादा सुविधाजनक स्थिति मे समझता है और समाज कुछ दिनों की झूठी सहानुभूति दिखाने के बाद ऐसा व्यवहार करने लगता है मानो अपराधी बलात्कारी नही बल्कि पीडिता स्वंय हो |
     यही नही, यह समाज ही पीडिता को तानों के दंश से रोज-ब-रोज आहत करने मे भी पीछे हटता नही | यह स्थितियां उसे और उसके परिवार को अवसाद के ऐसे गहरे अंधेरे मे धकेल देती हैं जहां उसके अंदर अपनी ही जीवनलीला समाप्त करने का विचार पनपने लगता है और किन्हीं कमजोर क्षणों मे अक्सर वह ऐसा कर बैठती है और कभी कभी तो पूरा परिवार ही |
     यहां लाख टके का सवाल यह है कि समाज का यह कैसा व्यवहार है जो ऐसे हादसों के शिकार परिवारों के लिए दवा नही बल्कि दर्द का काम करता है | एक तरफ़ वह अपने दुख की अभिव्यक्ति के प्रतीक स्वरूप मोमबत्तियां जला कर जुलूस निकालता है और वहीं कुछ समय अंतराल पर उनका अपने ही गांव-मुहल्ले मे रहना दूभर कर देता है | समाज के इस विकृत और विचित्र व्यवहार पर सोचा जाना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि आए दिन नारों, और जुलूसों के रूप मे वह अपने विरोध को दर्ज करने मे कहीं भी पीछे नही दिख रहा | आखिर यह कैसा विरोधाभास है ? इस सवाल का उत्तर समाज के हित के लिए  समाज को ही देना है | इसके बिना इस समस्या की तह तक पहुंच पाना संभव नही |

     

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