गुजरात
जिसने विकास के एक माडल के रूप
मे अपनी पहचान बनाई और दूसरों
के लिए भी समृर्ध्दि के नये
मुहावरे गढे, रातों
रात असंतोष की आग मे जलने लगा
। आश्चर्य यह कि वह उस समुदाय
के कोप का शिकार बना जिसकी
राजनीति से लेकर आर्थिक व
सामाजिक सभी क्षेत्रों मे एक
महत्वपूर्ण भागीदारी रही है
। पटेलों का यह समाज एक ताकतवर
व समृर्ध्द समाज के रूप मे
जाना जाता है । यही नही,
गुजरात की
क्षेत्रीय राजनीति भी इनके
इर्द गिर्द ही घूमती दिखाई
देती है। फिर ऐसा क्या हो गया
कि यह समुदाय अपने आप को पिछ्डा
समझने लगा है । नब्बे के दशक
मे हुए आरक्षण विरोधी आंदोलन
एक हिस्सा बने इस पटेल समुदाय
को ही आरक्षण की बैसाखी क्यों
रास आने लगी है ।
इतिहास
मे थोडा पीछे जांए तो पता चलता
है कि संविधान सभा मे शामिल
सदस्यों के बीच इस आरक्षण
व्यवस्था को लेकर मतभेद था ।
लेकिन दलित समाज व जन-जातियों
की जो दयनीय सामाजिक-आर्थिक
स्थिति उस दौर मे थी उसे देखते
हुए इन जाति समुदायों के लिए
संविधान मे 15 व
7.5 प्रतिशत
के आरक्षण की व्यवस्था पर
सहमति बन ही गई । लेकिन दस वर्ष
उपरांत इसकी समीक्षा की जानी
थी । बस यहीं से देश का दुर्भाग्य
इससे जुड गया और वोट की राजनीति
से जुड आरक्षण व्यवस्था ने
स्थायी रूप ले लिया
भारतीय
राजनीति दलित आरक्षण के इस
प्रेत से अभी मुक्त हो भी न
सकी थी कि संकीर्ण राजनीति
ने कोढ पर खाज का काम कर दिया
। कमंडल के प्रभाव को खत्म
करने के उद्देश्य से वी.पी.सिंह
सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशों
को लागू करते हुए पिछ्डी जातियों
को 27 प्रतिशत
आरक्षण की घोषणा कर दी । बस
यहीं से शुरू हुई सरकारी सेवाओं
मे आरक्षण पाने की चुहा दौड
जो आज भी जारी है ।
उत्तर
भारत ही नही, दक्षिण
भारत मे भी राजनीतिक हितों
को देखते हुए पिछ्डी जातियों
का चयन किया जाने लगा । ऐसे मे
उत्तर व दक्षिण मे कई ताकतवर
जातियां राजनीतिक समीकरणों
के चलते पिछ्डे वर्ग मे शामिल
कर दी गईं । देखा देखी दूसरी
जातियों ने भी इसके लिए संगठित
होना शुरू किया ।
उत्तर
भारत मे राजस्थान, हरियाणा
व प. उत्तर
प्रदेश के एक ताकतवर जाट समाज
ने भी आरक्षण के लिए गुहार
लगाना शुरू कर दिया है । जब कि
कभी अपने को पिछ्डा कहे जाने
पर इन्हें सख्त विरोध था । यही
स्थिति पटेलों की भी रही है
। लेकिन आज यह भी इस ठ्सक को
किनारा कर पिछ्डा कहलाने की
होड मे लग गये हैं । यह हिंसक
आंदोलन इसी का प्रतिफल है ।
यह
सबकुछ नही होता अगर समय रहते
इस आरक्षण व्यवस्था को खत्म
करने की पहल कर दी जाती । लेकिन
वोट राजनीति के चलते ऐसा संभव
न हो सका । बल्कि इसे वोट् कमाने
का एक माध्यम बना दिया गया ।
आरक्षण को लेकर की गई स्वार्थपरक
राजनीति ने देश के सामाजिक
ताने बाने को ही छिन्न भिन्न
कर दिया । गुजरात तो महज एक
बानगी भर है ।
आसानी
से सरकारी नौकरी मिल जाने के
लोभ ने जातीय समुदायों को
संगठित कर लडने का साहस दिया
। जाट आंदोलन और अब गुजरात मे
पटेल समुदाय की लडाई इसका
उदाहरण है । यही नही,
आरक्षण अब एक
ऐसा मुद्दा बन गया है कि इस
लालीपाप को दिखा कर कोई भी
रातों रात नेता बन सकता है ।
हार्दिक पटेल उन्हीं नेताओं
मे एक हैं ।
आरक्षण
की इस बैसाखी को पाने के लिए
अभी कई और जातीय समूह अपनी
जमीन तलाश रहे हैं । समय रहते
इस खतरे को न समझा गया तो इसका
गंभीर परिणाम देश को भुगतना
पड सकता है । इसलिए यह समय है
कि राजनीतिक स्वार्थों को
छोड कर आरक्षण को खत्म करने
की पहल राजनीतिक स्तर पर की
जानी चाहिए । वरना आरक्षण का
यह दैत्य देश के भविष्य पर एक
बडा सवाल बना रहेगा ।
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