( L. S. Bisht ) - इस
बार गुरदासपुर । पांच नदियों
का प्रदेश जिसने हिंसा का एक
दौर देखा है, फिर
दहल गया है । एक पीढी गुजर गई
जिसने पंजाब के उस लहुलुहान
चेहरे को देखा और दर्द की चीखें
सुनीं । आज फिर चेहरे पर भय की
रेखायें । इसलिए नही कि फिर
हिंसा के दानवों ने हमारी चौखट
पार की है, बल्कि
इसलिए कि कहीं यह उस स्याह दौर
की दस्तक तो नही जिसे भुलाये
जाने की पुरजोर कोशिशें अब
भी जारी हैं ।
सीमा
पर गोलियों और बम की आवाजों
से किसी को सिहरन नही होती
।लेकिन जब यही आवाजें घर के
अंदर जहां हम अपने को सबसे
ज्यादा सुरक्षित समझते हैं
सुनाई देती हैं तो डरना स्वाभाविक
ही है । तीन आतंकी आए और फिर
हमे घाव दे गये । अब तो लगता
है कि हम इन घावों के अभ्यस्त
से होते जा रहे हैं । इन घावों
से रिसते खून को येनकेन रोकने
के लिए मानो हम दवा-पट्टी
लेकर हमेशा तैयार बैठे हों ।
आतंकी
घटनाओं मे अकाल मृत्यु के
ग्रास बने अपने जवानों,
अफसरों और
नागरिकों को " शहीद
" का
दर्जा दे मानो फिर मौत की अगली
दस्तक का इंतजार करने लगते
हैं । रोज-ब-रोज
होने वाले यह धमाके और फिर दिल
को चीर देने वाली चीखों को
मानो हम अपनी नियति मान बैठे
हैं । लगता है हर ऐसे हादसे के
बाद लाशों को गिनने के लिए हम
अभिशप्त हैं । एक सन्नाटा सा
पसरा है । जहां किसी को कुछ
सूझ नही रहा ।
दर-असल
गौर से देखें तो पाकिस्तान
प्रायोजित यह आतंकवाद हमारी
मानसिक कमजोरी पर बार बार चोट
कर हमे आहत कर रहा है । वह जांनता
है कि अतीत की सैनिक असफलताएं
अब इतिहास बन गई हैं । 1965
हो या फिर 1971
या करगिल युध्द
पारंपरिक युध्द शैली मे उसे
मुंह की खानी पडी है । आज के
हालातों मे भी उसे शिकस्त
दिवारों पर लिखी साफ दिखाई
दे रही है । लेकिन एक परमाणु
सम्पन देश होने का जो तमगा
उसने लगा दिया है, इससे
वह अपने को ऊंचाई पर खडा देख
रहा है ।
बार
बार भारत को घाव देने के बाबजूद
भारतीय सेना ने सीमाओं की हद
नही लांघी । इसे वह अपनी एक
उपलब्धी समझने लगा है । यहां
तक कि करगिल युध्द मे भी भारतीय
सेनाएं अपनी ही जमीन पर खडी
थीं । यह उसने स्वयं नंगी आंखों
से देखा है ।
कहीं
न कहीं परमाणु अस्त्रों को
वह भारत की लाचारगी का कारण
मानने लगा है । समय समय पर
परमाणु युध्द की धमकी देने
मे भी उसे कोई हिचकिचाहट नहीं
। भारतीय पक्ष को देखें तो
शायद लाचारगी का यही कारण समझ
मे भी आता है । अन्यथा दुनिया
की एक बेहतरीन विशाल सेना वाले
देश का नित घाव खाना और आहत
होना समझ से परे है ।
इसमे
अब कोई संदे ह नही कि भारत को
अगर इस प्रायोजित आतंकवाद को
रोकना है तो पडोसी की इस धमकी
से पार पाना ही होगा । ऐसा भी
नही कि युध्द रण्नीतियों की
किताबों मे इसका कोई जवाब ही
न हो । महाभारतकालीन चक्र्व्यूह
जिसे एक अजेय व्यूह रचना समझा
जाता रहा उसको भी भेदने की कला
अर्जुन को मालूम थी । इसी तरह
आधुनिक युध्द कौशल मे भी ऐसा
संभव है कि परमाणु शस्त्रों
का जखीरा सिर्फ देखने की चीज
बन कर रह जाए और उसका उपयोग
ही संभव न हो सके । आक्रामक
युध्द शैली अनेक संभावनाओं
के रास्ते खोलती है । वैसे भी
गांधी के पदचिन्हों पर चलने
वाले इस देश को अब यह समझ लेना
चाहिए कि कभी चीन के राष्ट्र्पति
माउत-स
-तुंग ने
यूं ही नही कहा था कि "
पीस क्म्स
फ्रोम बैरल आफ गन " यानी
शांति बदूंक की नाल से आती है
। आज वह देश न सिर्फ समृध्दि
के ऊंचे पायदान पर खडा है बल्कि
दुनिया की एक ताकत भी है ।
बहरहाल
अब समय आ गया है कि आतंक की इस
दहशत से मुक्ति के लिए नितांत
नई संभावनाओं पर विचार करें
। अन्यथा इसका काला साया पूरे
देश को अपनी गिरफ्त मे ले लेगा
और तब हम अपने को लाचारगी की
स्थिति मे देख रहे होंगे ।
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