( L.S.Bisht) - बहुराष्ट्रीय कंपनी नेस्ले के लोकप्रिय
उत्पाद मैगी ने अनायास ही उन सवालों से भारतीय समाज को रू-ब-रू करा दिया है जो अभी
तक आम आदमी की सोच के दायरे से बाहर थे | दूसरे शब्दों मे कहें तो आधुनिक उपभोक्ता
संस्कृति से उपजी चिंताओं से लगभग बेखबर ही थे | मैगी का विवाद सिर्फ़ उपभोक्ता
वस्तुओं की गुणवत्ता तक सीमित नही है बल्कि विज्ञापनों की उस दुनिया पर भी सवाल
खडे हो रहे हैं जिनके तिलिस्म का जादू आज भारतीय समाज के सर चढ कर बोल रहा है |
यहां पर यह सवाल उठना भी स्वाभाविक ही है कि क्या कंपनी के लुभावने विज्ञापनों ने
सफ़लतापूर्वक उपभोक्ताओं को उत्पाद के उस सच से बेखबर रखा जिसका जानना उसके अपने
हित मे बेहद जरूरी था | अगर ऐसा है तो आज सिर्फ़ मैगी ही नही अपितु विज्ञापनों की
पूरी रंगीन दुनिया भी सवालों के कटघरे मे खडी है |
मौजूदा दौर का यह एक कडवा सच है कि आज आम
उपभोक्ता के लिए बाजार किसी भूलभूलैया से कम नही है | इस पर तुर्रा यह कि अपने
सीमित ज्ञान व जानकारी के बल पर वह इस भूलभूलैया को समझने व उससे निकलने मे पूरी
तरह से लाचार व बेबस नजर आता है | दर-असल टी वी , रेडियो और तमाम पत्र-पत्रिकाओं
के विज्ञापनों ने उसे इस प्रकार से उलझा कर रख दिया है कि अब वह अपने विवेक से कुछ
भी सोच पाने की स्थिति मे नही रहा | एक तरह से उसका ब्रेन वाश कर दिया गया है |
इधर कुछ समय से तो विज्ञापनों के तेवर लुभावने नही बल्कि आक्रामक नजर आने लगे हैं
| कहीं वह मृत्यु का भय दिखा रहे हैं तो कहीं बच्चों के भविष्य व उनके जीवन मे
मंडराते खतरों का एहसास दिलाते हुए उपभोक्ता को भयग्र्स्त कर अपने उत्पाद को बेचने
की पुरजोर कोशिश मे लगे हैं |
बात यहीं तक सीमित नही है | अब तो
प्रतिस्पर्धात्मक विज्ञापनों की बाढ सी आ गई है | “ इसमे है वही जो आपके मनपसंद
नमक मे नही “ की तर्ज पर सैकडों विज्ञापन टी वी के पर्दे पर अपनी अपनी धाक जमाने
का प्रयास करते नजर आने लगे हैं | इसके साथ ही बडी चालाकी से राष्ट्रीयता,
देशभक्ति व राष्ट्रीय महापुरूषों का भी व्यावसायिक उपयोग किया जाने लगा है | कई विज्ञापनों
ने तो राष्ट्रीयता की पूरी अवधारणा को ही बदल कर रख दिया है | यही नही, युवाओं के
जोश और सपनों को अपने उत्पादों से इस तरह से जोड दिया गया है कि मानो उसे पाना
ही उनका एक्मात्र लक्ष्य हो | यानी हमारे
चारों तरफ़ विज्ञापनों की एक नई दुनिया रच बस गई है और हम हैं कि इससे पूरी तरह से बेखबर हैं |
विज्ञापनों की इस मार से सिर्फ़ शहरी उपभोक्ता
ही नही बल्कि हमारे गांव-कस्बे भी अछूते नही रहे | दो-चार गांवों का छोटा बाजार भी
विज्ञापनों और लुभावने होर्डिंग्स से भरा मिलेगा | इस विज्ञापन दुनिया का ही
परिणाम है कि बाजार संस्कृति हमारे गांवों मे भी पूरी तरह से हावी हो चली है | आज
वहां भी ग्रामीण लस्सी व शर्बत की बजाए कोल्ड ड्रिंक पीने लगा है |
यही नही, हर उम्र व वर्ग के उपभोक्ताओं मे
इनका जादू सर चढ कर बोलने लगा है | बच्चों की जीवन शैली तो इनके प्रभाव से पूरी
तरह से बदल चुकी है | नौनिहालों का क्या खाना चाहिए और क्या पहनना चाहिए, यह सबकुछ
विज्ञापन ही निर्धारित करने लगे हैं | अब तो उनकी सेहत के नाम पर उनकी माताओं के
मनोविज्ञान को भी भुनाने की होड सी लग गई है | य्हां चिंताजनक पहलू यह भी है कि
मानवीय कमजोरियों का फ़ायदा उठाने की होड मे इनकी शैली आक्रामक होने लगी है | अब
विज्ञापन सिर्फ़ रिझाते या फ़ुसलाते ही नही है बल्कि डराते भी हैं | हमारी
सभ्यता-संस्कृति व आस्था की प्राचीन अवधारणाओं को भी तोड मरोड कर पेश किया जाने
लगा है |
बात यहीं तक सीमित नही है | बल्कि अब तो अपने
उत्पादों को बेचने की होड मे कंपनियां किसी भी सीमा तक जाने को तैयार हैं | सेक्स
को बेहुदे तरीके से परोस कर उपभोक्ता को अपने उत्पाद के पक्ष मे उकसाने मे उन्हें
कोई गुरेज नही | लेकिन यह ‘ क्रांति ‘ एक दिन मे संभव नही हुई बल्कि विज्ञापनों के
व्यापक महत्व व प्रभाव से अनजान हो हमारी उदासीनता के कारण ऐसा संभव हो सका |
थोडा पीछे देखें तो भारत मे विज्ञापन का
इतिहास लगभग 200 वर्ष पुराना है | इसकी लोकप्रियता भारतीय स्माचार पत्रों के
प्रसार से जुडी है | 29 जनवरी 1780 मे जेम्स अगस्त हिक्की ने पहले भारतीय समाचार
पत्र की शुरूआत की थी जिसे बंगाल गजट के नाम से जाना जाता है | इसके पहले अंक मे
ही विज्ञापन प्रकाशित हुए थे | यह् अलग बात है कि वह सूचनात्मक थे | 1950 आते आते
अखबारों की आय का मुख्य स्त्रोत विज्ञापन बन गये | 60वें दशक से तो उपभोक्ता
वस्तुओं के विज्ञापन अखबारों मे छा गये | और फ़िर 70 के दशक से रेडियो व टी वी पर
भी विज्ञापन आने लगे |
लेकिन देखते देखते विज्ञापनों मे सेक्स का
पहलू कब जुड कर हमारे दिलो-दिमाग मे छा गया, पता ही नही चला | वैसे कुछ लोग इसकी
शुरूआत 90 के दशक के उस विज्ञापन से मानते हैं जिसमे माडल मिलिंद सोमन और मधु सपरे
ने एक जूते का विज्ञापन दिया था | जिसमे दोनो लगभग निवस्त्र थे | केवल एक पाइथन
बदन पर लिपटा हुआ था | बहरहाल अब तो सेक्स विज्ञापनों की दुनिया कहीं आगे निकल गई
है | इसके विरोध मे कहीं कोई सुगबुगाहट भी नही सुनाई देती | मानो सबकुछ स्वीकार कर
लिया गया हो |
लेकिन यहां सवाल इन विज्ञापनों की विशवसनीयता
का है | अक्सर कंपनियां अपने उत्पादों की खूबियों को बढा चढा कर पेश करती रही हैं
और इसके लिए इन्होने फ़िल्मी सितारों से लेकर क्रिकेट खिलाडियों तक का उपयोग बखूबी किया
है | दूसरी तरफ़ इन सितारों की जेब मे करोडों रूपये जाने के बाद इन्हें इस बात से
कोई मतलब नही कि जो वह प्रचारित कर रहे हैं , उसमे कितनी सच्चाई है | मैगी के
मामले मे भी ऐसा ही हुआ है | अब वह सितारे भी सवालों के घेरे मे हैं जिन्होने इसका
प्रचार किया | देखा जाए तो यह देर से आई चेतना है | बहरहाल अब इन विज्ञापनकर्ताओं
को भी सख्त नियम कानूनों मे बांधे जाने की दिशा मे विचार किया जाने लगा है जो पैसा
लेकर बिना सोचे समझे उत्पादों का विज्ञापन करते आए हैं |
ऐसा नही है कि अब तक विज्ञापनों को नियंत्रित
करने के लिए कोई नियम कानून थे ही नही | केबल टेलीविजन नेटवर्क नियमों के तहत टी
वी चैनलों की जिम्मेदारी बनती है कि ऐसे विज्ञापन न दिखायें जो देशहित व समाज हित
मे न हों तथा सच न हों | एडवरटाइजिंग स्टेर्न्डड
कांउसिल आफ़ इंडिया (ए एस सी आई) भी टी वी चैनलों को लिख सकती है कि वे ऐसे
विज्ञापन दिखाना बंद करे और अगर न माने तो सूचना प्रसारण मंत्रालय को बताया जाता
है जो अपने स्तर पर कदम उठाते हैं |
वैसे भी 1985 मे गठित एडवरटाइजिंग स्टेर्न्डड
काउन्सिल आफ़ इंडिया का मुख्य उद्देश्य ही विज्ञापनों की सामग्री , उनकी सच्चाई तथा
ईमानदारी पर नजर रखना है तथा साथ मे यह सुनिश्चित करना भी कि विज्ञापन साफ़ सुथरे,
तथा महिलाओं व बच्चों के हितों के विरूध्द न हों | समय समय पर सूचना व प्रसारण
मंत्रालय से भी दिशा निर्देश जारी किये जाते हैं | लेकिन शायद ही इस दिशा मे कभी
गंभीरता से सोचा गया हो कि क्या विज्ञापनों की दुनिया मे वाकई मे सब ठीक ठाक है या
फ़िर कुछ घालमेल किया जाने लगा है | कभी कधार किसी विज्ञापन विशेष को लेकर कोई
विवाद उठा भी तो उसे किसी तरह निपटा कर फ़िर सबकुछ भुला दिया जाता है |
बहरहाल अब जबकि उपभोक्ता उत्पादों को लेकर
विज्ञापनों मे बडे बडे लुभावने वादे किए जाने लगे हैं , जिनका सच्चाई से कोई नाता
ही नही, गंभीरता समझ मे आने लगी है | यह भी महसूस किया जाने लगा है कि नैतिकता से
परे तमाम विज्ञापन हमारे सामाजिक ताने बाने को ही छिन्न भिन्न करने लगे हैं | समाज
को ऐसी दौड मे शामिल किया जा रहा है जहां मानवीय मूल्यों व सामाजिक सरोकारों के
लिए कोई जगह नही बचती |
अब यह बेहद जरूरी है कि विज्ञापनों को सच्चाई
की क्सौटी पर कसते हुए गलत दावों और वादों
वाले विज्ञापनों पर कार्रवाही की जाए |
झूठे विज्ञापनों को दिखा कर अपना उत्पाद बेचने वाली कंपनियों पर भारी जुर्माना लगा
कर उन्हे भविष्य के लिए प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए | जब तक सख्त कदम नही उठाये
जाते यह विज्ञापन लोगों को अपने मोहपाश मे बांध कर छ्लते रहेंगे |
एल.एस.बिष्ट, 11/508, इंदिरा नगर, लखनऊ
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें