बुधवार, 3 जून 2015

कहां खो गये बचपन के वह खेल

 (एल.एस.बिष्ट )- जिंदगी के उत्साह, उमंग और सपनों से भरे वह मासूम दिन जब  बहुत पीछे छूट चलते हैं तब याद आता है वह अतीत, वह बचपन, वह शरारतें और उन दिनों से जुडी ढेरों यादें । लेकिन यादों के इस काफिले से बचपन का जो अक्स उभरता है, वह अब कहीं नही दिखाई देता । वक्त के साथ बहुत बदल गया है बचपन । दिन-दिन भर की धमाचौकडी, तरह तरह के खेल और छोटी-छोटी तकरारें, अब कहीं नही दिखाई देते बच्चों के ऐसे झुंड । मस्ती और आपसी प्यार-सदभाव से भरे वह खेल ही अब कहां हैं जिन्हें खेल कर कई पीढियां जवान हुई।

अब तो लगता है कि समय की तेज धारा ने बच्चों को भी एक दूसरे से अलग थलग कर अपने अपने आंगन तक सीमित कर दिया है । स्वचालित खिलौने, दूरदर्शन और सेटेलाइट चैनलों ने बचपन की तस्वीर ही बदल दी है । रही सही कसर पूरी कर दी है किताबों के बढते बोझ ने \ उम्र से जुडी चंचलता, बालसुलभ शरारतें, सहजता और अल्हडपन अब कहां हैं । कुल मिला कर बचपन की पूरी तस्वीर ही बदल गई है । लेकिन बहुत समय नही बीता जब बचपन का मतलब कुछ अलग ही था । पीछे छूट चले उन दिनों को याद करें तो बे-साख्ता याद आते हैं कुछ द्र्श्य -

" आओ बच्चों खेलेंगे, गुड की भेली फोडेंगे, चम्पा फूल बिखेरेंगे, जिसकी मां न भेजे उसकी मां लंडूरी " । अपने संगी साथियों की यह टेर सुनते ही सभी घर से निकलने लगे हैं । आखिर किसे नही है अपनी मां के सम्मान का ख्याल । अब काफी बच्चे जमा हो गये हैं लेकिन फैसला करना है कि कौन सा खेल खेलें। लीजिए यह भी तय हो गया । सभी ने हामी भर दी है । अब टीम बनानी है और यह भी तय करना है कि पहली बारी किसकी होगी । लेकिन इसमें भी कोई मुश्किल नही । आंख मिचौली के लिए बच्चे एक लाइन मे खडे हो गए हैं । एक बच्चा हर शब्द के साथ प्रत्येक बच्चे पर उंगली रखता कह रहा है " ईचक दीचक दाम दडाचक, लोहा लाठी चंदन घाटी, पटके डोरा मक्खन मोरा....जिस बच्चे पर गीत का आखिरी शब्द आता है वह बाहर होता जा रहा है और अंत मे दो बच्चों मे से जो एक रह गया है उस पर ही पहली पोत (बारी) शुरू होनी है ।

मैदान के दूसरे कोने मे बच्चों का एक और झुंड । उन्होने ' कोडा जमालशाही ' खेलने का फैसला कर लिया है । वहां भी फैसला होना है कि पहली पोत कौन देगा । एक बच्चा ' इक्की विक्की जौ की टिक्की, कांणा कौन.......' कह कर हर बच्चे पर उंगली रखता आगे बढ रहा है । जिस पर गीत का अंतिम शब्द आता है वह बाहर । अंत वाला फंसा । पहले उसकी बारी । उसे छोड सभी बच्चे एक लाईन मे जमीन पर उकडु बन कर बैठ गये हैं और वह एक हाथ मे एक कपडा लिए सभी की पीठ से चक्कर लगा कहता जा रहा है, ' कोडा जमालशाही पीछे देखे मार खाई ' । जिस किसी के पीछे वह कपडा डाल देगा और उसे आभास न हो सके तो वश फंस जायेगा और पहला वाला उसकी जगह बैठ जायेगा । लेकिन जो कोई चालाकी से पीछे मुड कर देखने की कोशिश मे रहेगा उसकी कपडे से पिटाई भी पक्की है । भला पिटाई कौन चाहेगा ।

लेकिन आज कहीं नही दिखाई देते कोडा जमालशाही खेलते बच्चे । यही नही, अनायास याद आने लगती है कबड्डी की धमाचौकडी " छ्ल कबड्डी आल ताल, मर गये बिहारी लाल, उनकी मूंछे लाल लाल ...." छू जाने से कौन मर गया और कौन जिंदा है, इस पर अक्सर विवाद हो जाया करता । कबड्डी की धर-पकड के अलावा सेवन टाइल्स यानी एक के ऊपर एक रखे सात पत्थरों को गेंद से तोड कर भागने वाला खेल भी कम रोचक न था । दो दलों के बीच खेले जाने वाला यह खेल बच्चों की खूब कसरत करवाता ।

" कीलम कांटी " मे भी कम मजा नही था । लेकिन " आइस-पाइस " के खेल मे कौन कहां छिप गया, पता लगाना मुश्किल हो जाता लेकिन अगर दिखाई पड गये तो तपाक से आइस-पाइस कह कर उसे मरा हुआ मान लिया जाता । अपने को छिपाने के लिए कोई घनी झाडी के अंदर दम साधे बैठ जाता तो कोई किसी गड्ढे मे उकडू बन कर । किसी को अच्छी जगह नही मिली तो दीवार की आड ही बहुत है । जो नजर मे आ गया और देखते ही ' आइस पाइस ' कह दिया फिर सभी को ढूंढने की बारी उसकी । लुका छिपी का यह खेल बडा मजा देता । बच्चे लंच टाइम मे स्कूल के अंदर भी यह खेल खूब खेलते और जैसे ही लंच टाइम ख्त्म होने की घंटी बजती, जो जहां  छिपा होता  निकल कर अपनी अपनी कक्षा मे चला जाता ।

भाग दौड व दूसरों को छ्काने का खेल " कांए डंडी " किसी बाग या पेडों के झुरमुटों के बीच खेला जाता । एक छोटी सी डंडी को दूर फेंक कर एक लडका दूसरे लडकों को छूने दौडता । लेकिन वे पेडों पर चढ जाती । वह छूने पेड पर चढता तो वह पेड की लचीली डालियों से झूल कर तुरंत नीचे कूद पडते । इस तरह पोत वाले बच्चे को खूब पिदाया (परेशान) जाता । लेकिन अब शहरों मे  कहां हैं ऐसे पेड जिन पर बंदरों की तरह झूला जा सके । बांस की तरह मुंह उठाये सीधे खडे यूकेलिप्टस के पेडों मे कोई चाहे भी तो कैसे झूल सकता है ? वैसे भी शहरों मे अब पेडों के झुरमुट कहां ।

इन खेलों मे बच्चे एक दूसरे को खूब हैरान परेशान करते । लेकिन क्या मजाल कि कोई नियम विरूध्द चला जाए । कभी कधार कोई बच्चा ज्यादा परेशान होकर अपनी पोत (बारी) देने से इंकार कर देता तो बच्चे उसे आसानी से छोडते नही । लेकिन कोई हठ ही कर ले कि वह अपनी बारी नही देगा तो बाकी बच्चे जोर जोर से गाने लगते " पोत पोत पुलकारेंगे, बांसुरी बजाएंगे, बांसुरी का टूटा तार, जो कोई पोत न दे उसकी मां के नौ सौ यार " । यह सुन कर वह रोते हंसते, खीजते-झुंझलाते अपनी बारी जरूर दे देता ।

इन खेलों के अलावा कंचे और पिन्नियां खेलने का आलम तो यह था कि स्कूल हो या कि घर, लडकों  की जेबें कंचों से भरी रहती । जहां कहीं दो चार बालक जमा हुए और समय मिला तुरंत जमीन मे ' गुच्चक ' बना दी जाती और खेल शुरू हो जाता । घरों मे कंचें किसी शीशी या डिब्बे मे बडे जतन से रखे जाते और अगर शाम तक कुछ कंचे जीत कर उनमे इजाफा हो गया तो खुशी का ठिकाना न रहता । अक्सर इस बात पर होड रहती कि किसके पास सबसे  ज्यादा कंचे हैं । लडकों के बीच यह कंचे इतने लोकप्रिय थे कि हर दुकान पर आसानी से मिल जाते । दस पैसे मे दस  रंग बिरंगे कंचे । लेकिन देखते देखते यह कंचे भी बचपन से जुदा हो गये । अब शायद ही कहीं कंचे खेलते बच्चे नजर आएं ।

`पिन्नियां भी बचपन का हिस्सा रही हैं । पेड मे लगने वाली गोल गोल छोटी छोटी इन पिन्नियों का खेल भी बिल्कुल कंचों की ही तरह होता । इन्हें आकर्षक बनाने के लिए बच्चे अपनी पिन्नियों को अलग अलग रंगों मे रंग भी दिया करते थे । इन्हें संभाल कर रखा जाता था । क्या मजाल जेब से एक भी पिन्नी इधर उधर हो जाए ।इनकी कीमत हीरे जवाहरातों से कम न होती । प्र्त्येक बच्चे को अपने स्कूल व मुहल्ले के आसपास लगे पिन्नी के पेडों की जानकारी भी होती । लेकिन यह पिन्नियां भी अब सिर्फ अतीत से जुडी एक याद बन कर रह गई है । मौजूदा पीढी के बच्चे तो इसके नाम से ही परिचित नही ।

किशोर उम्र के लडकों मे लटटू नचाने  का नशा भी कम न था । कंचे खेलने से फुरसत् मिली तो लट्टू नचाने मे लग गये । लेकिन लट्टूओं का मतलब आधुनिक चाभी से चलने वाले लट्टूओं से नही बल्कि लत्ती ( नचाने के लिए धागे की एक मजबूत डोर ) से नचाने वाले लट्टू से है । तब दस-पन्द्रह पैसे मे अच्छा लटटू  मिल जाया करता था । लट्टू भी  कई आकार प्रकार के होते । गोल लट्टू, अंडाकार और लंबे आकार के लट्टू । आकार मे कुछ छोटे, कुछ मध्यम और कुछ काफी बडे आकार के । हर बच्चे के पास कई कई लट्टू होते । अक्सर लटटू  मे लगी कील से जेब फट जाया करती लेकिन इसकी चिंता किसे  थी । गाहे बगाहे घर मे डांट भी पडती लेकिन लट्टू के आगे सब बैकार । सच कहा जाए तो तब लट्टू और बचपन एक दसरे के पर्याय थे ।

वक्त ने ऐसी करवट् बदली किअन्य खेलों की तरह लटटू -लत्ती भी हाशिए पर चले गये । अब कम से कम शहरों मे तो लटटू नचाते बच्चे कहीं नजर नही आते । अगर बच्चे जानते हैं तो फर्श पर चाबी से नाचने वाले आधुनिक लटटू को । लेकिन इनमे वह बात कहां । आज के बच्चों को तो यह भी नही मालूम कि कभी डोरी से नचाने वाले लकडी के बने लटटू भी हुआ करते थे जिन्हें जमीन पर नचाया जाता और उनसे कई तरह के खेल खेले जाते । माता पिता भी पुराने खेलों के बारे मे बताने व समझाने की जहमत नही उठाते ।

बहरहाल मौजूदा दौर को दरकिनार कर फिर अतीत मे डूबकी लगाएं तो और भी तरह तरह के खेल याद आने लगते हैं । याद आते हैं गोल घेरा बनाए एक दूसरे का हाथ पकडे गीत गाते बच्चे " हरा समंदर, गोपी चंदर, बोल मेरी मछ्ली कितना पानी...."  । गोल घेरे के बीच मे खडी लडकी पैरों से शुरू करते हुए बताती है " इत्ता पानी, इत्ता पानी ...."  जैसे ही पानी सर के ऊपर आता है घेरे मे खडे सभी बच्चे इधर उधर भाग चलते हैं और बीच मे खडी उस लडकी को उन्हें छूना या पकडना पडता है । जिसे छू दिया वह घेरे के बीच मे आयेगा ।और फिर नये सिरे से " हरा समंदर.......।

बैठ कर खेले जाने वाले खेलों मे चोर सिपाही खेलना भी बच्चों को बहुत भाता था । इसमे पर्ची निकाल कर चार बच्चे  राजा, वजीर, चोर व सिपाही बन जाया करते । और फिर राजा के आदेश मे वजीर बने बच्चे को चोर की पहचान करनी होती । गलत बताने पर राजा वजीर को थप्पड भी मार दिया करता ।

एक मजेदार खेल पानी मे भी खेला जाता । गांव के बच्चे इस खेल को खूब मस्ती से खेलते । इस पानी के खेल को " लाल बहेडिया " कहा जाता । यह किसी तालाब या नहर मे खेला जाता । लेकिन समय के साथ इस खेल को भी भुला दिया गया ।

इस तरह के तमाम खेल बचपन से जुडे थे । मौसम और समय के पहर के हिसाब से भी किस्म किस्म के खेल हुआ करते थे । जिनसे न सिर्फ बच्चों का मनोरंजन होता बल्कि इन खेलों के माध्यम से बच्चे बहुत कुछ सीखते भी थे । सिंह-बकरी, बारह गोटा, अठारह गोटा, चौबीस गोटा, चीठा मीठा आदि खेल भी काफी प्रचलित थे । गुल्ली डंडा जैसे खेल का तो कहना ही क्या ।

लेकिन अब कहां है यह खेल । बचपन को कुछ तो किताबों के बोझ ने लील लिया बाकी टी.वी. संस्कृर्ति की भेंट चढ गया । जो बचा भी उसे जमाने की हवा ने अपने हिसाब से ढाल दिया । बेशक खेल आज भी हैं और खेलने के साधन भी लेकिन इनमे वह बात कहां जो इन खेलों मे थी । अब शायद ही कोई बच्चा किसी के दरवाजे जाकर खेलने के लिए आवाज लगाता हो । अगर लगा भी दे तो आएगा कौन ?  सच तो यह है कि " आओ बच्चों खेलेंगे, गुड की भेली फोडेंगें.......जैसे गीत बहुत पीछे छुट चले है। सामाजिक  बदलाव  का चरित्र न बदला तो शायद एक दिन हमे यह भी याद न रहेगा कि हमारे बचपन मे कभी " हरा समंदर, गोपी चंदर....या फिर " ईचक दीचक, दाम दहीचक.... जैसे गीतों से जुडे किस्म किस्म के खेल भी थे ।



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