शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

राजनीति ने लील लिए आसमां कैसे कैसे



( एल. एस. बिष्ट ) - इसे देश की भौगोलिक विशेषता ही कहें कि देश मे प्रवाहित होने वाली तमाम नदियां अपने उदगम से एक लंबा सफर तय करते हुए अंतत: सागर में विलीन हो जाती हैं । यहां तक पहुंचने के लिए वह जंगल, पहाड पठार और लंबे मैदानो का सफर तय करती हैं। गंगा जैसी पवित्र नदी का सफर भी सागर मे जाकर खत्म हो जाता है । कुछ ऐसा ही रहा है हमारे सामाजिक आंदोलनों का चरित्र ।
अतीत को देखें या वर्तमान परिद्र्श्य को, सामाजिक - आर्थिक कारणों से उपजे जनांदोलन अंतत राजनीति की भेंट चढ गये । राजनीति के गहरे सागर ने इनका अस्तित्व हमेशा के लिए खत्म कर दिया । वैसे तो नदियां भी सागर मे विलीन होती हैं लेकिन उसका पानी खारा जरूर है लेकिन गंदला नहीं जबकि राजनीति के सागर के साथ ऐसा नही है ।
यहां थोडा गौर करें तो गांधी जी का जनांदोलन भारतीय इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ हैं जिसे आने वाली पीढियां याद रखंना चाहेगी । लेकिन कहां है आज गांधी की विचारधारा और उनके रास्तों पर चलने का दम भरने वाले लोग । दर-असल आजादी के बाद गांधी और गांधीवाद दोनो ही राजनीति का हिस्सा बंन गये । अपने को गांधीवादी कहने वाले सत्ता की राजनीति मे इतना गहरे उतर चुके हैं कि उन्हें आभास तक नहीं कि गांधी का वह आंदोलन सिर्फ स्वतंत्रता आंदोलन नही था अपितु एक सामाजिक सोच व द्र्ष्टि भी थी । कुछ सामाजिक बुराईयों के विरोध मे गांधी जी हमेशा मुखर रहे थे लेकिन आज सत्ता की राजनीति ने सबकुछ लील लिया ।
सत्तर के दशक का जे.पी आंदोलन सत्ता की सीढियां चढने का माध्यम बना । आज कहां है संपूर्ण क्रांति के वह यौध्दा जो व्यवस्था परिवर्तन की हुंकार भरा करते थे। जे.पी. नेतृत्व से उपजे इस आंदोलन ने भारतीय राजनीति का एक नया अध्याय लिखा और संपूर्ण परिवर्तन की आस जगाई लेकिन आंदोलन से उपजी आवाजें जल्द ही उसी राजनीति का हिस्सा बन गईं जिसके विरोध मे यह जन्मा था । आज उस आंदोलन के सिपाही सत्ता की राजनीति मे आकंठ डूबे हैं । आंदोलन से उपजी उर्जा को राजनीति के ब्लैक होल ने अपने मे समाहित कर लिया । आज कहां है उस संपूर्ण क्रांति की सोच और कहां खो गये वह हरकारे ।
ऐसा ही कुछ हुआ है अन्ना के आंदोलन के साथ । देश के बिगडते सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक परिवेश के बीच एक उम्मीद की किरण जगाई थी इस आंदोलन ने जिसकी मशाल स्वयं आम आदमी ने उठाई । अन्ना, केजरीवाल या फिर किरन बेदी जैसे लोगों ने तो सिर्फ बदलाव की उस आवाज को विस्तार दिया । लेकिन इसके पहले कि यह आंदोलन अपने सही मुकाम तक पहुंचता, राजनीति के जहरीले जबडे उस तक पहुंच गये । देखते देखते इस आंदोलन को भी आम प्रचलित भारतीय त्रासदी भुगतनी पडी और यह बिखराव का शिकार होकर रह गया ।
थोडा गौर से देखें तो इस आंदोलन से जुडे वह सभी लोग जिन्होने इसे गति प्रदान की थी एक साफ सुथरी पृष्ठभूमि से निकल कर आये थे । भ्र्ष्टाचार इनकी सोच  से कोसों दूर था । इनमे परिवर्तन की ललक थी । लेकिन यकायक् केजरीवाल जी को सभी समाधान राजनीति के अंदर ही नजर आने लगे । दिशा बदलने के तर्क कुछ भी रहे हों लेकिन सच यही है कि वह राजनीति के आकर्षण से अपने को बचा न सके । सत्ता की हनक, प्रभाव और खास बने रहने के विचार मात्र ने उन्हें उस आंदोलन से अलग कर दिया । उन्हें राजनीति के उस चमकदार अंधेरे ने अपना शिकार बना ही लिया जो पहले भी कई क्रांतिवीरों को अपना शिकार बना चुका था ।
किरन बेदी ने अन्ना के साथ रहना ही ठीक समझा । उन्हें कतई उम्मीद नही थी कि यह जनसमर्थन वोट मे भी तब्दील हो सकता है । लेकिन ऐसा हुआ और केजरीवाल सत्ता के शिखर तक पहुंचने मे सफल हुए । यही नही राजनीति ने उन्हे एक खास किस्म का नेता भी बना दिया । वह मीडिया के चर्चों मे बने रहे । दुनिया भर के मीडिया ने भी उन्हे महत्व दिया । यह सब देख किरन बेदी को भी राजनीति मोहने लगी  । महत्वाकांक्षी वह पहले से थीं । इधर केजरीवाल के भय से ग्रस्त भाजपा को भी एक ईमानदार खांटी चेहरे की जरूरत महसूस होने लगी । किरन बेदी को यह सही समय लगा । " आप " बिखराव के रास्ते पर थी और भाजपा का विस्तार होने लगा था । तमाम वैचारिक विरोधों को दरकिनार कर वह भी दलगत राजनीति के सागर मे कूद पडीं । मुख्यमंत्री पद और सत्ता के लोभ ने उनकी वैचारिकता और सामाजिक-राजनैतिक् सोच को भाजपा के सांचे मे ढाल दिया । कल तक वह जिस हिन्दुत्व और संघ की मुखर विरोधी थीं अब वह उसकी समर्थन मे नारे बुलंद करने लगीं ।
यह राजनीति का मोहपाश ही था कि जिस बुनियाद पर पूरे आंदोलन की शानदार इमारत खडी हुई थी वह बुनियाद ही सरकने लगी । लेकिन बेशक आज केजरीवाल इस बात को स्वीकार न करें लेकिन सच यही है कि  जिस राजनीतिक संस्कृति केविरोध से उनका जन्म हुआ अंतत: वह उसी के शिकार भी हुए । वह शिखर पर थे जब वह कुछ नही थे और जैसे ही कुछ हुए राजनीति के विष ने अपना काम करना शुरू कर दिया और वहीं पर ला खडा किया जहां से वह चले थे । किरन बेदी का अभी इस सच से साक्षात्कार होना बाकी है । यह उनका दिवास्वप्न से ज्यादा कुछ नही कि वह राजनीति के आकाश मे अपनी मन मर्जी की उडान भर सकेंगी । उन्हें अभी यह समझना शेष है कि उनकी उडान की दिशा उनके राजनैतिक दल की सोच से निर्देशित होगी न कि उनके स्वयं के विचारों से । वह उतनी ही उडान भर सकेंगी जितना उनकी पार्टी चाहेगी । एक दिन उनका भी इस राजनीति से मोहभंग होना निश्चित है लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी । राजा बनने की ललक मे राजनीति के सागर मे डुबकी लगाये हुए और फिर मोहभंग का शिकार हुये ऐसे तमाम लोग या तो वैराग्य जीवन के लिए अभिशिप्त हुए या फिर स्वयं ही हाशिए की जिंदगी को स्वीकार कर लिया ।
आज सवाल यह महत्वपूर्ण नही है कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा , केजरीवाल या फिर किरन बेदी । यह सत्ता का खेल है लेकिन शायद कहीं अच्छा होता यदि राजनीति के सम्मोहन से मुक्त हो यह लोग अन्ना आंदोलन के झंडे तले अपनी मशाल को जलाये रखते । समय समय पर राजनीति को निरंकुश व जन विरोधी होने से रोकते । इनका सामाजिक संगठन राजनीति से मुक्त हो देश व समाज के हित मे एक अच्छी सकारात्मक भूमिका का निर्वाह करता । लेकिन ऐसा हो न सका और राजनीति के सम्मोहन ने एक जन आंदोलन को लील लिया । अन्ना एक छ्ले हुए, हारे सिपाही की मानिंद अकेले खडे हैं । आंदोलन का यह बिखराव एक तरह से राजनीति की जीत है और  विचारों और मूल्यों की हार । यह आने वाले कल के लिए एक शुभ संकेत तो कतई नही है ।  

बुधवार, 21 जनवरी 2015

चुनावी फिजा बदल सकते हैं कुछ फैसले


 (एल.एस. बिष्ट ) - आम चुनाव के बाद किसी भी राज्य का चुनाव इतना रोचक और पेचीदा नही रहा जितना दिल्ली मे होने जा रहा है । इसका बडा कारण है कि कहीं भी कोई केजरीवाल नहीं था । यहां केजरीवाल हैं । चाहे उन्हें भगोडा कहा गया हो या फिर नौटंकीबाज लेकिन इतना अवश्य है कि कम से कम दिल्ली के लोगों ने उन्हें पूरी तरह से खारिज नही किया है । इस सच का एहसास दूसरे राजनीतिक दलों को भी है ।
सतही तौर पर ऐसा प्रतीत हो रहा हो कि भाजपा इस लडाई को आसानी से जीत लेगी लेकिन वास्तव मे ऐसा है नही । दर-असल गौर से देखें तो मोदी सरकार और शीर्ष नेतृत्व ने कुछ ऐसे कदम भी उठाये हैं जो उनके पक्ष मे तो कतई नही जाते । अब यह दिल्ली  की जनता पर निर्भर है कि वह उन्हें किस रूप मे लेती है ।
दिल्ली चुनाव के ठीक कुछ समय पहले मोदी सरकार ने सभी केन्द्रीय कार्यालयों मे आधार बायोमेट्रिक व्यवस्था से उपस्थिति दर्ज करने का फरमान जारी किया था । इसका क्रियांन्वयन दिल्ली मे हो भी गया है । दिल्ली से बाहर इसे हर हाल मे 26 जनवरी तक लागू किया जाना है । मोदी सरकार की इस सख्ती से केन्द्रीय सेवा के लोग कतई खुश नहीं हैं । अब तक जो कर्मचारी आराम से कार्यालय आता जाता रहा है उसे भाग दौड कर समय पर पहुंचना पड रहा है । दिल्ली जैसे शहर मे जहां लोग काफी दूर से भी आते हैं परेशानी महसूस करने लगे हैं । दर-असल वह  एक आरामदायक माहौल मे आने जाने के अभ्यस्त थे और अब मोदी जी के फरमान ने उनका वह चैन छीन लिया है । यह नाराजगी चुनाव के नजरिये से भाजपा के हित  मे नही है । यहां गौरतलब है कि दिल्ली मे केन्द्रीय कर्मचारियों की एक बडी संख्या है ।  इसके अलावा दिल्ली प्रशासन के कर्मचारी भी इसी शंका से ग्रसित हैं । यह पहलू चुनावी द्र्ष्टि से महत्वपूर्ण है । अच्छा होता इस कदम को चुनाव के बाद उठाया गया  होता ।
इसके अतिरिक्त केन्द्र मे सत्ता संभालते ही मोदी सरकार ने हरियाणा मे रिटायरमेंट की उम्र 60 से घटा कर 58 कर दी जिससे कर्मचारियों के बीच यह संदेश पंहुचना स्वाभाविक ही था कि मोदी सरकार कर्मचारियों के हित मे नही है । यहां तक माना जाने लगा था कि मोदी जी केन्द्रीय कर्मचारियों के लिए भी ऐसा ही सोच रहे हैं । यही कारण है कि दिल्ली रैली मे उन्हें इस सबंध मे सफाई देनी पडी । लेकिन फिर भी ऐसी छवि का बनना उनकी लोकप्रियता को कहीं न कहीं से कम अवश्य कर रहा है।
राजनीतिक नजरिये से भी कुछ चीजें पार्टी हित मे नहीं रहीं । जिस तरह कुछ लोगों को रातों रात दल मे शामिल कर उन्हें महत्व दिया गया इसे भी पार्टी का एक वर्ग सही नही मानता । अवसरवादी लोगों का दल मे आना और उन्हें महत्व मिलना पार्टी के एक वर्ग मे नाराजगी व खिन्नता का कारण बना है ।
बात चाहे किरन बेदी की हो या कि कृष्णा तीरथ या फिर शाजिया इल्मी व विनोद कुमार बिन्नी । कहीं न कहीं यह सभी चंद दिन पहले भाजपा के मुखर आलोचक रहे हैं और ऐसे मे सिर्फ दिल्ली चुनाव मे अपनी सीटे बढाने के लिए इन्हें ससम्मान पार्टी ने न सिर्फ शामिल किया बल्कि टिकट भी दिये ।
किरन बेदी को ही लें । कल तक यह मोदी सरकार और नेताओं को कोसती रहीं हैं । लेकिन जैसे ही इन्हे मुख्यमंत्री पद का आश्वासन मिला इन्होने यू टर्न ले लेकर भाजपा का दामन थाम लिया । इनके लिए वरिष्ठ राजनैतिक नेताओं यहां तक कि जगदीश मुखी डा. हर्षवर्धन आदि को भी किनारे कर दिया गया । यही नही जैसे ही किरन बेदी जी को सीएम पद का उम्मीदवार बनाया गया उनके तेवरों को देख कर कई वरिष्ठ नेताओं का नाराज व खिन्न होना स्वाभाविक ही था । कांग्रेस सरकार मे मंत्री रही कृष्णा तीरथ को दलित  वोटों के लिए रातों रात पार्टी मे शामिल कर टिकट दे दिया गया । आप पार्टी की शाजिया इल्मी दिल्ली राजनीति की कोई बडा चेहरा नही है लेकिन महज केजरीवाल को कमजोर करने के लिए उन्हें भी पार्टी मे शामिल कर लिया गया । इस कदम से जमीनी स्तर के कार्यकर्ता व दिल्ली राजनीति से जुडे वरिष्ठ लोग अपने को अपमानित व उपेक्षित महसूस करने लगे हैं । पार्टी कार्यालय के आगे जो कुछ हुआ यह इसी का परिणाम है । बहुत संभव है इसका राजनैतिक खामियाजा भी  भुगतना पडे ।
बहरहाल दिल्ली चुनाव का ऊंट जिस करवट भी बैठे लेकिन इतना तय है कि अब जो हालात बने हैं इससे भाजपा का रास्ता इतना आसान नही रहा । एक्जुट्ता मे कमी साफ दिखाई देने लगी है और विशेष कर किरन बेदी फैक्टर इस चुनाव का एक महत्वपूर्ण पहलू बन कर उभरा है । जिन चुनावी लाभों के लिए इन लोगों को जल्दबाजी मे पार्टी से जोडा गया वह लाभ नुकसान मे भी तब्दील  हो सकते हैं । कुल मिला कर लाख टके की बात यह है कि दिल्ली की जनता इस बदले हुए परिद्र्श्य पर कैसे सोचती है ।यहां गौरतलब यह भी है कि  पार्टी के रूप मे " आप " बेशक बिखराव का शिकार हुई हो लेकिन केजरीवाल को एक भावी मुख्यमंत्री के रूप मे अभी भी खारिज नही किया गया है ।

  

सोमवार, 12 जनवरी 2015

आतंक पर विधवा विलाप्



(L.S. Bisht ) -पेरिस मे व्यंग्य अखबार शार्ली एबदो के दफ्तर मे हुए आतंकी हमले में 12 लोगों की हत्या ने यह सोचने को मजबूर कर दिया कि कहीं दहशत और धर्म के इस काकटेल से पूरी दुनिया का वजूद ही खतरे मे न पड जाए । इसी समय नाइजीरिया के बागो शहर में भी भीषण आतंकवादी हमला हुआ जिससे पूरा शहर ही दफन हो गया । यहां पर इस्लामी आतंकी संगठन बोको हराम ने 2000 लोगों को मौत के घाट उतार दिया ।यह दीगर बात है कि फ्रांस के रूतबे के आगे विश्व बिरादरी ने इस खबर को ज्यादा महत्व नही दिया ।

इसके पहले पाकिस्तान मे मासूम बच्चों को आतंकी हमले मे गोलियों से भून दिया गया । इस घटना ने भी सोचने को मजबूर कर दिया कि धर्म के नाम पर यह कैसा आतंकवाद है जो बेगुनाह बच्चों को भी अपना निशाना बनाने लगा है। पूरी दुनिया ने इस पर भी दुख और गुस्सा प्रकट किया । आतंक की यह घटनाएं अब आम खबर जैसी लगने लगी हैं और शायद यही इसका सबसे दुखद पहलू है ।
रोज-ब-रोज होती आतंक की यह घटनाएं जहां एक तरफ मासूम लोगों को अकाल मृत्यु का ग्रास बना रही हैं वहीं दूसरी तरफ ऐसा प्रतीत होता है कि यह खबरें धीरे धीरे अपना संवेदन भी खोने लगी हैं और हमने इन्हें लाचारगी की स्थिति मे स्वीकार सा कर लिया है । दर-असल गौर से देखें तो विस्तार पाता यह आतंक विश्व बिरादरी के पाखंडपूर्ण व्यवहार व दिखावटी चिंताओं का भी परिणाम है । अतीत में जाएं तो दुनिया के तमाम देशों ने अपने राजनीतिक हितों के कारण न सिर्फ आतंकवाद को बढावा दिया बल्कि उसका उपयोग अपने हितों के लिए भी किया । सत्तर और अस्सी के दशक मे अपने शत्रु राष्ट्रों को कमजोर करने के लिए इसका उप्योग एक हथियार के रूप मे किया जाता रहा है ।
इस तरह एक तरफ आतंकवाद अपना पांव पसारता रहा वहीं दूसरी तरफ दुनिया के देश विधवा विलाप करते रहे तथा एक पाखंडपूर्ण चिंता भी जाहिर करते रहे । भारत के संदर्भ मे ही देखें तो पाकिस्तान और अमरीका दोनो देश जो अब आतंकवाद की हिट लिस्ट में शामिल हैं, राजनीतिक लाभ-हानि के हिसाब से आतंकवाद के विरोध मे बयानबाजी करते रहे हैं । जो आतंक भारत को घाव देता है वह 'अच्छा ' है और जो पाकिस्तान को वह ' बुरा ' है । पाकिस्तान के इस दोमुंहे व्यवहार का ही परिणाम है कि आज दोनो देश आतंक से त्रस्त हैं । लेकिन भारत को अस्थिर करने वाले आतंकियों की पीठ थपथपाने मे वह आज भी पीछे नही ।
अमरीका जो दुनिया का सबसे बडा थानेदार है वह भी आतंक के मामले में अपनी पैंतरेबाजी मे कहीं पीछे नहीं । उस पर जब आतंकी हमला होता है तो वह पूरी दुनिया को गुहार लगाता है लेकिन जब भारत आहत हो उसकी तरफ से सहयोग की आस लगाता है तो उसके वादे राजनीतिक बयानबाजी तक सीमित होकर रह जाते हैं । यही नही आतंक को पोषित करने वाले पाकिस्तान पर डालरों की बरसात करने वाला अमरीका आतंक को लेकर कितना गंभीर है, समझा जा सकता है ।
लगभग यही हाल दूसरे यूरोपीय देशों का भी है चाहे वह बिट्रेन हो या फिर फ्रांस । एशिया मे दुनिया की एक बडी ताकत चीन क्यों खामोश है । जापान की चुप्पी क्या कहती है । दर-असल दुनिया के वह देश जो अभी तक इस आग से अछूते हैं , वह मूकदर्शक बने रहने मे ही अपनी बेहतरी समझ रहे हैं । लेकिन जो इससे जूझ रहे हैं उन्हें दूसरों की सहायता की दरकार है । अगर पूरी दुनिया के देश आतंक के खिलाफ ईमानदारी से एक्जुट जो जाएं तो कोई कारण नही कि इसका सफाया न किया जा सके । लेकिन शायद इस ईमानदारी की कमी से ही यह नासूर बनता जा रहा है ।
यह भी सच है कि धर्म का लबादा ओढे इस आतंकवाद पर दुनिया के कुछ देश या तो खामोश हैं या फिर उनका मूक समर्थन । भारत मे ही देखें तो यहां आतंक्वाद के प्रति वह सख्त नजरिया कहीं नही दिखाई देता जिसकी इस देश को आज जरूरत है । धर्मनिरपेक्षता का पाखंड ऐसा है कि वह जाने अनजाने आतंकवाद पर की जानी वाली चोट को ही कमजोर कर रहा है । पेरिस की आतंकी घटना के संदर्भ मे  एक नेता दवारा इनाम की घोषणा करना तथा एक कांग्रेसी नेता का यह कहना कि 9/11 की घटना के बाद आतंक के खिलाफ जैसी कार्रवाही हो रही है उसकी प्रतिक्रिया मे पेरिस जैसी घटनाएं तो होंगी ही, एक अलग चेहरे को सामने लाती हैं । आखिर आतंक से जूझ रहे इस देश मे यह कैसी प्रतिक्रिया है और क्यों ?  आज इस पर सोचा जाना चाहिए ।
इसमें कोई संदेह नही कि अगर आज दुनिया के सभी देश आतंक के खिलाफ ईमानदारी से आगे आएं तो यह खूनी खेल ज्यादा दिन नही टिक सकता । लेकिन राजनीतिक पैतरेबाजी, पूर्वाग्रह और पाखंड्पूर्ण सहानुभूति के कारण यह संभव नही हो पा रहा है । इसके लिए धर्म और देश की सीमाओं से परे होकर सोचना होगा । तभी आतंकवाद पर निर्णायक चोट संभव है ।


शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

जरूरी है छात्रसंघों का चुनाव


 ( L.S. Bisht ) - अभी हाल मे एक सम्मेलन के अवसर पर उत्तर प्रदेश के राज्यपाल महोदय ने छात्रसंघों के चुनाव को
लेकर कुछ सकारात्मक संकेत दिये हैं । उनका मानना है कि छात्रसंघों के चुनाव जल्द से जल्द किए जाने चाहिए । इधर कुछ समय से छात्रसंघों के चुनाव न कराये जाने के कारण छिटपुट आवाजें भी उठाई जाती रही हैं । दर-असल अस्सी के दशक के बाद से इन छात्र संगठनों का चरित्र तेजी से बदला है और जनसामान्य की नजर मे इनका काम सिर्फ नारेबाजी करना, धरना-प्रदर्शन और अराजकता फैलाना भर रह गया है ।यही कारण है कि  छात्रसंघों में राजनीति किस सीमा तक होनी चाहिये यह अभी तक तय नही हो सका है। क्या यह कम आश्चर्यजनक नही कि जहां दुनिया के दूसरे देशों में छात्रसंघों की भूमिका स्पष्ट है वहीं दुनिया के सबसे बडे इस लोकतांत्रिक देश मे तस्वीर अभी तक साफ नही हो पायी है। परंतु देश मे तेजी से बदल रहे राजनीतिक परिवेश मे अब यह समझा जाने लगा है कि राजनीति मे युवाओं की भागीदारी सकारात्मक बदलावों के लिए जरूरी है।
गत आम चुनावों मे जिस तरह युवाओं ने सत्ता परिवर्तन मे अहम भूमिका निभाई उससे भी यह महसूस किया जाने लगा है कि छात्र संगठनों को सिर्फ नकारात्मक नजरिये से देखना सही नही है ।
यह सही है कि अब तक छात्रसंघों की पहचान कुछ अलग किस्म की रही है ।  विश्वविधालयों व कालेजों में छात्रसंघों के चुनाव होते हैं । रंगीन पोस्टर व बैनरों से कुछ दिन के लिए पूरा शहर पट सा जाता है । प्र्चार युध्द भी कम आक्रामक नही होता ।  हिंसात्मक घटनाओं से लेकर उम्मीदवार के अपहरण व हत्या तक की वारदातें होती हैं । विजयी उम्मीदवारों के जुलूस पूरे शहर को मंत्रमुग्ध कर आकर्षण तथा चर्चा का विषय बनते हैं । लेकिन इसके बाद यह छात्र नेता और छात्रसंघ क्या कर रहे हैं इसका पता किसी को नही लगता । इतना अवश्य है कि समय समय पर दुकानों को लूट्ने, होट्लों में बिल अदा न करने, स्थानीय ठेकों को हथियाने के प्र्यास में मारपीट करने के कारण छात्र शक्ति चर्चा का विषय बंनती है । देखते देखते कुछ छात्र नेता जन नेता बनने की प्रक्रिया से जुड राजनीतिक गलियारों में दिखाई देने लगते हैं ।
कुछ अपवादों को छोड कमोवेश यही तस्वीर है हमारे तथाकथित छात्रसंघों की और कुल मिला कर छात्र शक्ति का यही चरित्र उभर सका है । लेकिन  इसे देख कर क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि छात्रों के लिए छात्रसंघों तथा संगठनों का कोई औचित्य नही रह गया है या फिर इस तर्क को स्वीकार लिया जाये कि छात्र जीवन में किसी प्र्कार की राजनीति का कोई स्थान नही है ।
वर्तमान से उठते इन सवालों पर जरा गहराई से विचार करें तो पता चलता है कि नाउम्मीदी के बादल इतने घने भी नही हैं । अतीत गवाह है कि महात्मा गांधी, सुभाष च्न्द्र बोस और जय प्र्काश नरायण के आहवान पर छात्र संगठन जो कर गुजरे वह आज इतिहास बन गया है ।
स्वतंत्रता पूर्व की छात्र राज्नीति का सुनहला इतिहास रहा है । 1905 में कलकत्ता विश्वविधालय के दीझांत समारोह में लार्ड कर्जन ने बंगाल विभाजन की बात बडे ह्ल्के ढंग से कही थी लेकिन छात्रों को समझते देर न लगी । जल्द ही पूरे राज्य मे इसके विरूद आंदोलन शुरू हुए। एकबारगी अंग्रेज सरकार हैरत मे पड गई । बंगाल से उपजी यह चेतना जल्द ही दूसारे राज्यों में भी फैल गयी । 1920 मे नागपुर में अखिल भारतीय कालेज विधार्थी सम्मेलन हुआ और नेहरू के प्र्यासों से छात्र संगठनों को सही अर्थों मे अखिल भारतीय स्वरूप मिला । इसके बाद वैचारिक मतभेदों को लेकर संगठनों में टूट फ़ूट होती रही ।
कुछ वर्षों तक कुछ भी सार्थक न हो सका । सत्तर के दशक में दो महत्वपूर्ण घट्नाएं अवश्य छात्र राजनीति के क्षितिज मे उभरीं । पहला 1974 मे ज़े.पी. आंदोलन जो व्यापक राष्ट्रीय मुद्दों को लेकर शुरू हुआ। दूसरा असम छात्रों का आंदोलन जिसकी सुखद परिणति हुई तथा युवा छात्र सत्ता में भागीदार बने । बाकी याद करने लायक कुछ दिखाई नही देता । मंडल आयोग को लेकर युवा आक्रोश जिस रूप मे प्र्कट हुआ इससे तो एक्बारगी पूरा देश हतप्र्भ रह गया ।
इधर कुछ वर्षों से छात्र राजनीति मे राजनीतिक दलों का हस्तक्षेप इस सीमा तक बढा है कि इसमे वे छात्र ही उभर सकते हैं जो किसी न किसी राजनीतिक दल से जुडे होने और सभी चुनावी पैतरों का इस्तेमाल कर सकते हों । राजनीतिक दलों के इस हस्तक्षेप ने जहां एक तरफ आम छात्र को छात्रसंघों के चुनाव से दूर खडा कर दिया है वहीं दूसरी तरफ चुनाव को खर्चीला भी बनाया है ।इसके साथ ही अपराधी तत्वों की भागीदारी भी बढ्ने लगी है।
दलगत राजनीति के साथ ही जातीय , क्षेत्रीय व साम्प्र्दायिक समीकरणों को भी बल मिला है । बिहार व उत्तर प्र्देश के अधिकांश कालेजों में चुनाव जातीय समीकरणों के आधार पर लडे जाते रहे । इस तरह स्थिति बद से बदतर होती रही है।
ऐसा  भी नही कि छात्र राजनीति में संभावनाओं का आकाश बहुत सीमित है ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जिन्होने आगे चल कर राष्ट्रीय राजनीति मे महत्वपूर्ण योगदान दिया लेकिन छात्र जीवन मे उन्हे किसी राजनैतिक दल की छ्तरी की आवश्यकता महसूस नही हुई । डा. जाकिर हुसैन अलीगढ विश्वविधालय की ही उपज थे। इनके अलावा डा. मौलाना आजाद, शेख अब्दुल्ला , फखरूदीन अली अहमद भी अपने छात्र जीवन मे यहां के छात्र संगठन से जुडे रहे । इलाहाबाद  विश्वविधालय के छात्र संघ ने भी कई राजनेता देश को दिये । हेमवती नंदन बहुगुणा , वी.पी.सिंह , चंद्र्शेखर, नुरूल हसन, जनेश्वर मिश्र , मोहन सिंह आदि ने राष्र्टीय राजनीति मे अपनी पुख्ता पहचान बनाई। लखनउ विश्वविधालय और दिल्ली  विश्वविधालय ने तो कई नेताओं को संसद पहुंचाया ।
लेकिन यह उपलब्धियां उस दौर की हैं जब सिद्दांत परक राजनीति का ही परिसर मे वर्चस्व था । लेकिन इसके बाद जो हुआ उसका ही परिणाम यह हुआ कि  छात्र आंदोलन आम छात्र से कटने लगा  ' आई हेट पालिटिक्स ' कहने वाले व्रर्ग का जन्म इसी राजनीति के गर्भ से ही हुआ ।लेकिन् इधर कुछ समय से युवा वर्ग मे सुखद बदलाव के संकेत दिखाई देने लगे हैं । वह राजनीति को समझ्ने की कोशिश करने लगा है और उसमे भागीदारी भी । देखा जाए तो इधर राजनीति व सामाजिक क्षेत्र मे बहुत से बदलावों मे इस वर्ग ने ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा उसके अच्छे परिणाम भी सामने आए । आज का छात्र पहले की अपेक्षा कहीं ज्यादा परिपक्व है तथा उसे पता है कि उसके सार्थक हस्तक्षेप से हालात बदल सकते हैं । वैसे भी छात्रसंघों को  राजनीति की नर्सरी माना जाता है । यहीं से वह देश और समाज को समझ कर आगे चल कर देश की राजनीति मे कदम रखता है । अगर यह नर्सरी ही न होगी तो आने वाले कल मे देश की राजनीति मे नये विचारों का समावेश संभव नही । इसलिए जरूरी है कि छात्र जीवन के इस मंच को हाशिए पर न डाला जाए तथा विश्विधालयों व कालेजों मे छात्रसंघों के चुनाव कराएं जाएं ।



शनिवार, 3 जनवरी 2015

बदलते परिवेश में युवाओं की जद्दोजहद

( L.S. Bisht ) - आज के दौर के युवाओं की दुनिया को समझने का प्रयास करें तो बहुत सी ऐसी प्र्वत्तियों देखने को मिलेंगी जिनकी कल्पना सत्तर व अस्सी के द्शक तक संभव नही थी । आज जमाने के साथ सुर-ताल मिला कर चलने वाले युवक-युवतियां जिनके लिए पैसा, शोहरत और सफलता प्राप्त करना ही एक्मात्र लक्ष्य है, मानो बता देना चाहते हों कि अब मूल्यों की बातें पीछे छूट गई हैं । यह दुनिया की हर खुशी को अपनी जेब में रख कर घूमने की तमन्ना में अपनी सारी ऊर्जा खपा रहे हैं । जिन्दगी से जुड़ी बाकी चीजें इनके लिए कोई मायने नहीं रखतीं ।
' दुनियादार ' हो जाने वाला युवाओं का यह वही वर्ग है जो किसी भी ऐसे व्यावसायिक पाठयक्र्म में प्रवेश के लिए तैयार है जो उन्हें अच्छी जिन्दगी की गारंटी दे सके । इनकी ' अच्छी जिंदगी ' की परिभाषा में शामिल है ढेर सारा रूपया, आलीशान बंगला, कार, नौकर-चाकर और विदेश यात्राओं की संभावनाएं । सच तो यह है कि , सम्मानजनक जीविका, का मतलब अब महज पैसों तक सीमित रह गया है । यही कारण है कि हाल में किए गये कुछ अध्ययन यह स्पष्ट संकेत दे रहे हैं कि नई पीढी अधिक आय और सुविधाओं वाले व्यवसायों की ओर आकर्षित हो रही है । यहां तक कि भारतीय रक्षा सेवा जैसे सम्मानजंनक क्षेत्र की ओर भी अब युवाओं का रूझान नहीं रहा ।
बात सिर्फ पैसे या सुविधापूर्ण जिंदगी की ही नही है बल्कि दुनियादारी या ' प्रैक्टिकल ' हो जाने के नाम पर उस मानसिकता की भी है जिसके तहत यह समझा जाने लगा है कि पैसा कमाया नहीं बनाया जाता है । प्र्त्येक छोटे बडे काम के लिए ' सेटिंग ' करना इन्हें अनिवार्य लगने लगा है । इनका एक्मात्र उद्देश्य येन-केन प्रकारेण सफलता के शिखर तक पहुंचना है । इस शिखर तक पहुंचने के लिए गलत और सही रास्तों का चयन इनके लिए कोई खास मतलब नहीं रखता । दूसरों को लंगडी मार आगे बढ जाने वाले ऐसे युवा विशुध्द व्यक्तिगत स्वार्थ को ही जीवन का आदर्श मानने लगे हैं ।
दर-असल जमाने की नब्ज पकड लेने का दंभ भरने वाले ये युवा इस तथ्य से बेखबर हैं कि इनकी जीवन शैली एक व्यवस्थित मानवीय समाज के ताने बाने को छिन्न-भिन्न करने लगी है । अपने को आज के दौर मे ' प्रैक्टिकल ' कहने वाला यह वर्ग दर-असल मानवीय जीवन की बुनियादी तल्ख सच्चाइयों से हटकर स्वयं अपने लिए एक ऐसा जाल बुनने लगा है जिसमें देर-सबेर उसे स्वयं फंसना है लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि इनकी ' एप्रोच ' ने सतही तौर पर ऐसा परिवेश तैयार कर लिया है जो दूसरों को भी लुभाने लगा है ।
इस तरह आदर्शों और मूल्यों से कट कर एक बडी भीड़ ' दुनियादार ' बनने की प्रक्रिया से गुजरने लगी है । इस तथाकथित ' प्रैक्टिकल ' युवा वर्ग के कमजोर जमीन पर खडी उपलब्धियों को देख कर युवा पीढी का एक बडा हिस्सा ऐसा भी है जो सबकुछ पा लेने के प्रयास में अजीब मन: स्थिति का शिकार होकर रह गया है । दर-असल तथाकथित प्रैक्टिकल युवाओं को सुविधाजनक स्थिति में देख कर वह भी उन्हीं मूल्यों को आत्मसात करने की कोशिश तो करता है लेकिन उसकी बुनियादी सोच जिसमें अभी आदर्शों और मूल्यों के लिए जगह शेष है, उसे दुनियादार बनने से रोक देती है । अंतत: वह कुंठित होकर समाज, व्यवस्था और परिवेश को कोसने लगता है ।
कुल मिला कर देखें तो इस दौर की यह सबसे बडी त्रासदी है कि वह युवा जिनमें आदर्शों और मूल्यों के लिए संघर्ष करने की मजबूत इच्छा शक्ति होनी चाहिए थी, इन्हें दरकिनार कर येन केन प्रकारेण अपनी उपलब्धि का परचम लहराने को आतुर दिखाई दे रहा है । जीवन के प्रति जिस द्र्ष्टिकोण को वह आज ' प्रैक्टिकल एप्रोच ' मान आगे बढने के लिए अपनी सारी ऊर्जा होम कर रहा है वह वस्तुत: उसे एक अंधी गली की तरफ ही ले जा रहा है लेकिन विडंबना यह है कि वह इससे बेखबर है ।
दर-असल आज वह सब कुछ जल्द से जल्द पा लेना चाहता है । इस होड़ में वह यह भी भूल गया है कि शिखर तक पहुंचने के लिए एक निश्चित दूरी अवश्य तय करनी पड़ती है । जमीन से शिखर तक की दूरी तय किये बिना सीधे उडकर शिखर में परचम लहरा देने की उपलब्धि कभी स्थायी व ठोस नहीं हो सकती । इस मनोवृत्ति का ही परिणाम है कि शिखर पर पहुंचने के बाद भी जीवन के उतार-चढाव का एक हल्का सा झोंका इन्हें अवसाद और टूटन की गहरी खाई में धकेल देता है । इसलिए आज की भौतिक चकाचौध के बीच भी यह समझ लेना जरूरी है कि आदर्शों , मूल्यों और श्रम  की ठोस जमीन के अभाव में प्राप्त की गई उपलब्धियां अंतत: उन्हें स्थायी संतुष्टि न दे सकेंगी । दुनियादार बन ' प्रैक्टिकल एप्रोच ' से अर्जित कोई भी सफलता किसी न किसी मोड़ पर दुख और पीड़ा का कारण बनती हैं । इसलिए शिखर तक पहुंचने के लिए रास्ता लंबा और कठिन ही सही लेकिन सही अर्थों में ठोस, स्थायी और सच्ची सफलता इस रास्ते से गुजर कर ही मिल सकती है । पा लेने का सच्चा सुख भी इसी में निहित है ।