बुधवार, 21 जनवरी 2015

चुनावी फिजा बदल सकते हैं कुछ फैसले


 (एल.एस. बिष्ट ) - आम चुनाव के बाद किसी भी राज्य का चुनाव इतना रोचक और पेचीदा नही रहा जितना दिल्ली मे होने जा रहा है । इसका बडा कारण है कि कहीं भी कोई केजरीवाल नहीं था । यहां केजरीवाल हैं । चाहे उन्हें भगोडा कहा गया हो या फिर नौटंकीबाज लेकिन इतना अवश्य है कि कम से कम दिल्ली के लोगों ने उन्हें पूरी तरह से खारिज नही किया है । इस सच का एहसास दूसरे राजनीतिक दलों को भी है ।
सतही तौर पर ऐसा प्रतीत हो रहा हो कि भाजपा इस लडाई को आसानी से जीत लेगी लेकिन वास्तव मे ऐसा है नही । दर-असल गौर से देखें तो मोदी सरकार और शीर्ष नेतृत्व ने कुछ ऐसे कदम भी उठाये हैं जो उनके पक्ष मे तो कतई नही जाते । अब यह दिल्ली  की जनता पर निर्भर है कि वह उन्हें किस रूप मे लेती है ।
दिल्ली चुनाव के ठीक कुछ समय पहले मोदी सरकार ने सभी केन्द्रीय कार्यालयों मे आधार बायोमेट्रिक व्यवस्था से उपस्थिति दर्ज करने का फरमान जारी किया था । इसका क्रियांन्वयन दिल्ली मे हो भी गया है । दिल्ली से बाहर इसे हर हाल मे 26 जनवरी तक लागू किया जाना है । मोदी सरकार की इस सख्ती से केन्द्रीय सेवा के लोग कतई खुश नहीं हैं । अब तक जो कर्मचारी आराम से कार्यालय आता जाता रहा है उसे भाग दौड कर समय पर पहुंचना पड रहा है । दिल्ली जैसे शहर मे जहां लोग काफी दूर से भी आते हैं परेशानी महसूस करने लगे हैं । दर-असल वह  एक आरामदायक माहौल मे आने जाने के अभ्यस्त थे और अब मोदी जी के फरमान ने उनका वह चैन छीन लिया है । यह नाराजगी चुनाव के नजरिये से भाजपा के हित  मे नही है । यहां गौरतलब है कि दिल्ली मे केन्द्रीय कर्मचारियों की एक बडी संख्या है ।  इसके अलावा दिल्ली प्रशासन के कर्मचारी भी इसी शंका से ग्रसित हैं । यह पहलू चुनावी द्र्ष्टि से महत्वपूर्ण है । अच्छा होता इस कदम को चुनाव के बाद उठाया गया  होता ।
इसके अतिरिक्त केन्द्र मे सत्ता संभालते ही मोदी सरकार ने हरियाणा मे रिटायरमेंट की उम्र 60 से घटा कर 58 कर दी जिससे कर्मचारियों के बीच यह संदेश पंहुचना स्वाभाविक ही था कि मोदी सरकार कर्मचारियों के हित मे नही है । यहां तक माना जाने लगा था कि मोदी जी केन्द्रीय कर्मचारियों के लिए भी ऐसा ही सोच रहे हैं । यही कारण है कि दिल्ली रैली मे उन्हें इस सबंध मे सफाई देनी पडी । लेकिन फिर भी ऐसी छवि का बनना उनकी लोकप्रियता को कहीं न कहीं से कम अवश्य कर रहा है।
राजनीतिक नजरिये से भी कुछ चीजें पार्टी हित मे नहीं रहीं । जिस तरह कुछ लोगों को रातों रात दल मे शामिल कर उन्हें महत्व दिया गया इसे भी पार्टी का एक वर्ग सही नही मानता । अवसरवादी लोगों का दल मे आना और उन्हें महत्व मिलना पार्टी के एक वर्ग मे नाराजगी व खिन्नता का कारण बना है ।
बात चाहे किरन बेदी की हो या कि कृष्णा तीरथ या फिर शाजिया इल्मी व विनोद कुमार बिन्नी । कहीं न कहीं यह सभी चंद दिन पहले भाजपा के मुखर आलोचक रहे हैं और ऐसे मे सिर्फ दिल्ली चुनाव मे अपनी सीटे बढाने के लिए इन्हें ससम्मान पार्टी ने न सिर्फ शामिल किया बल्कि टिकट भी दिये ।
किरन बेदी को ही लें । कल तक यह मोदी सरकार और नेताओं को कोसती रहीं हैं । लेकिन जैसे ही इन्हे मुख्यमंत्री पद का आश्वासन मिला इन्होने यू टर्न ले लेकर भाजपा का दामन थाम लिया । इनके लिए वरिष्ठ राजनैतिक नेताओं यहां तक कि जगदीश मुखी डा. हर्षवर्धन आदि को भी किनारे कर दिया गया । यही नही जैसे ही किरन बेदी जी को सीएम पद का उम्मीदवार बनाया गया उनके तेवरों को देख कर कई वरिष्ठ नेताओं का नाराज व खिन्न होना स्वाभाविक ही था । कांग्रेस सरकार मे मंत्री रही कृष्णा तीरथ को दलित  वोटों के लिए रातों रात पार्टी मे शामिल कर टिकट दे दिया गया । आप पार्टी की शाजिया इल्मी दिल्ली राजनीति की कोई बडा चेहरा नही है लेकिन महज केजरीवाल को कमजोर करने के लिए उन्हें भी पार्टी मे शामिल कर लिया गया । इस कदम से जमीनी स्तर के कार्यकर्ता व दिल्ली राजनीति से जुडे वरिष्ठ लोग अपने को अपमानित व उपेक्षित महसूस करने लगे हैं । पार्टी कार्यालय के आगे जो कुछ हुआ यह इसी का परिणाम है । बहुत संभव है इसका राजनैतिक खामियाजा भी  भुगतना पडे ।
बहरहाल दिल्ली चुनाव का ऊंट जिस करवट भी बैठे लेकिन इतना तय है कि अब जो हालात बने हैं इससे भाजपा का रास्ता इतना आसान नही रहा । एक्जुट्ता मे कमी साफ दिखाई देने लगी है और विशेष कर किरन बेदी फैक्टर इस चुनाव का एक महत्वपूर्ण पहलू बन कर उभरा है । जिन चुनावी लाभों के लिए इन लोगों को जल्दबाजी मे पार्टी से जोडा गया वह लाभ नुकसान मे भी तब्दील  हो सकते हैं । कुल मिला कर लाख टके की बात यह है कि दिल्ली की जनता इस बदले हुए परिद्र्श्य पर कैसे सोचती है ।यहां गौरतलब यह भी है कि  पार्टी के रूप मे " आप " बेशक बिखराव का शिकार हुई हो लेकिन केजरीवाल को एक भावी मुख्यमंत्री के रूप मे अभी भी खारिज नही किया गया है ।

  

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