बुधवार, 30 जुलाई 2014

परदे से न जुड़ सका कहानियों का सच

               

{ एल.एस.बिष्ट } - कालजयी कथाओं के रचयिता मुंशी प्रेमचंद का साहित्य आम आदमी की जिंदगी का आइना माना जाता है । जिंदगी के हर पहलू पर उनकी गहरी निगाह थी । यही कारण है कि उनकी लिखी कहानियों में हमे समाज का पूरा सच दिखाई देता है । उनका साहित्य समाज की बुराईयों को ही नही उघाडता बल्कि निहायत मामुली समझे जाने वाले किरदारों के संघषों, परेशानियों और सपनों को भी रेखाकित करता है ।  उनकी लिखी कहानियां बरसों बरस बाद भी मौजूदा समाज के संदर्भ में प्रासंगिक लगती हैं । वह च्ररित्र आज भी कहीं न कहीं दिखाई देते हैं ।
      अपनी रचनाओं से सामाजिक सच्चाईयों को उदघाटित करने वाले इस महान रचनाकार की सृजनात्मक यात्रा का एक और् पडाव है जिसमे उनकी जिंदगी के वह पन्ने हैं जो उन्होने फिल्मी दुनिया में बिताए इस आशा में कि उनकी कहानियों व उपन्यासों के आम किरदारों की जिंदगी से जुडे सच करोडों लोगों तक पहुच सकें और वे भी वह महसूस कर सकें जो उन्होने किया । लेकिन क्या ऐसा हो सका ।
      यह जानना कम आशर्च्यजनक नही कि प्रेमचंद की आधा दर्जन से अधिक कहानियों या उपन्यासों पर फिल्में बनी हैं लेकिन आम दर्शक उन्हें लगभग उन्हें भूल चुका है । कम से कम "साहब बीबी और गुलाम " के मुकाबले में तो कहा ही जा सकता है । जब कि  प्रेमचंद जनमांनस के चितेरे के रूप में विमल मित्र से कहीं बड़े और महत्वपूर्ण लेखक हैं । हिंदी का पाठक भी विमल मित्र की तुलना में  प्रेमचंद से अधिक जुडा है । पर्ंतु यह इतिहास का बडा सच है कि फिल्मों के स्तर पर यह बात  प्रेमचंद के साथ नहीं हो पाई ।
      यहां गौर तलब यह भी है कि ऐसा सिर्फ  प्रेमचंद की कहानियों के साथ ही नही हुआ बल्कि समाज से जुडे साहित्य का सिनेमा के परदे से वह रिश्ता बन ही नही पाया जिसकी उम्मीद की जाती रही । विशेषत: हिंदी की साहित्यिक कृतियों पर बनी फिल्में, अपवाद छोड कर, सफल नहीं हो पाईं । जब कि यह बात विदेशी फिल्मों और अन्य भारतीय भाषाओं की  फिल्मों के बारे में इतनी सच नही है ।
प्रेमचंद का फिल्मी दुनिया में प्रवेश 1930 में हुआ । शुरूआती दौर में उन्हें छिटपुट काम मिला लेकिन 1934 उनके लिए महत्वपूर्ण वर्ष साबित हुआ । अंजता सिनेटोन ने मुंशी प्रेमचंद को “मिल” फिल्म की कहानी और संवाद लिखने को कहा । इसमें मिलों में मजदूरों की दयनीय हालत और खुले शोषण को बड़ी निडरता से दिखाते हुए पूंजी और श्रम के टकराव को दिखाया गया था । परन्तु अंग्रेज सरकार ने इसके प्रदर्शन पर रोक लगा दी । कुछ समय बाद फिल्म पर्दे पर आई परन्तु उसमें प्रेमचंद के कलम की धार कहीं नहीं दिखी ।एक अच्छी कहानी पर यह एक असफल फिल्म सिद्थ हुई ।
1934 के बाद महालक्ष्मी सिनेटोन ने प्रेमचंद के उपन्यास पर “ सेवासदन “ बनाई लेकिन यह फिल्म भी अपना प्रभाव न छोड़ सकी ।
वर्ग संघर्ष पर आधारित उनकी एक महत्वपूर्ण कृति है “ रंगभूमि “ जिसमें तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था के प्रति उनका विरोध व आक्रोश अभिव्यक्त होता है । “रंगभूमि “ का हलधर सैनिकों को ललकारते हुए कहता है – “ जिस आदमी के दिल में इतना अपमान होने पर भी क्रोध न आए , मरने मारने पर तैयार न हो जाए , उसका खून खौलने न लगे वह मर्द नहीं हिजड़ा है । हमारी इतनी दुर्गति हो और हम देखते रहें । जिसे देखो चार गाली सुनाता है और ठोकर मार देता है “। ऐसी जीवंत और यर्थाथवादी कथा पर बनी फिल्म भी प्रभावहीन रही । शायद कागज पर लिखा सच परदे पर न उतर सका ।
      इतिहास की घटनाओं को आधार बना कर लिखी कहानी " शतरंज के खिलाडी " पर इसी नाम से सत्यजीत राय ने फिल्म बनाई । सईद जाफरी व शबाना आजमी जैसे कलाकारों को लेकर बनाई गई यह फिल्म भी पर्दे पर प्रेमचंद की मूल कहानी की आत्मा को जीवंत न कर सकी ।  यह फिल्म सत्यजीत राय की फिल्म बन कर रह गई इसमें  मुंशी प्रेमचंद कहीं नजर नहीं आते ।
      इस तरह  प्रेमचंद का साहित्य जो देश व काल की सीमाओं से परे है, सिनेमा के रूपहले पर्दे पर पूरी तरह प्र्भावहीन रहा । फिल्म नगरी की उल्टी चाल व मांनसिक दिवालियापन को  प्रेमचंद ने महसूस कर लिया था । फिल्मों की घटिया व्यावसायिक रूचि के साथ समझौता न कर पाने के कारृण वापस आ गए थे ।
      परंतु एक सवाल आज भी हमारे सामने खडा है वह यह कि आखिर ऐसे कौन से कारण हैं कि "गोदान " या "शतरंज के खिलाडी " कितनी ही बार पढ्ने वाले पाठ्क इसी कहानी पर आधारित  फिल्म के दर्शक नहीं बन पाते ? इस सवाल का हल तलाशना तब और भी जरूरी हो जाता है जब सिनेमा के पर्दे की साहित्य से दूरियां कुछ ज्यादा ही बढ्ने लगी  हो ।

       प्रेमचंद के साहित्य में नारी मन की पीड़ाओं तथा दूषित सामाजिक व्यवस्था में उनके टूटन की एक बिल्कुल अलग धारा है । नारी जीवन के कथानक पर रचा उनका साहित्य आज भी बेजोड़ है परंतु जब उंनकी लिख्री "औरत की फितरत " पर फिल्म बनी तो उसमें  प्रेमचंद की वह नारी कहीं नजर नहीं आई  ।
      आजादी के बाद भी  प्रेमचंद की कहानियों व उपन्यासों पर फिल्म बनीं लेकिन इस परिवर्तन का फिल्मों में कोई खास प्र्भाव पडा, ऐसा नजर नही आया । प्रेमचंद की रचना " दो बैलों की जोडी " पर फिल्म बनी "हीरा मोती " लेकिन अच्छी पटकथा के बाबजूद फिल्म प्र्भाव न डाल सकी । प्रेमचंद की अमरकृति " गोदान " का होरी भी पर्दे पर बेअसर रहा । यह फिल्म भी होरी की व्यथा को पर्दे पर शिदद के साथ न उतार सकी जैसा कि प्रेमचंद ने कागज पर उतारा था ।
      यानी कुल मिला कर समाज से जुडा साहित्य जो जन जन तक अपना असर डालने में सफल रहा, फिल्मों में सफल न हो सका । फिर भी कोशिशे यदा कदा आज भी जारी हैं ।  


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