गुरुवार, 3 जुलाई 2014

बढती जा रही हैं आत्महत्याओं की घट्नाएं

   

 ( L.S. Bisht )  -  आर्थिक विकास व तेजी से बदल रहे सामाजिक परिवेश के बीच देश मे मानसिक रोगियों व आत्महत्या के मामलों मे तेजी से वृध्दि हो रही है | आज हर पांच मे एक व्यक्ति मानसिक रूप से बीमार है तथा नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार औसतन एक घंटे मे 15 लोग आत्महत्या कर रहे हैं | अभी तक यह माना जाता रहा है कि विकसित देशो मे ही व्यक्ति मानसिक रोगों का आसानी से शिकार हो जाता है लेकिन चौंकाने वाली बात यह है कि भारत मे ही लगभग 1 करोड लोग मानसिक रूप से बीमार हैं |
     मानसिक रोग सामान्यत: शर्रीर मे धीरे धीरे विकसित होते रहते हैं और समय रहते चेतावनी भी देते रहते हैं | लेकिन जानकारी के अभाव मे इन संकेतों को मनुष्य नही समझ पाता | यदि शुरूआती अवस्था मे ही इन रोगों का उपचार करा लिया जाए तो लगभग सत्तर फ़ीसदी से अधिक मामलों मे आसानी से रोगमुक्त होने की संभावना रहती है |
     विकास के लिए जूझते भारत जैसे विकासशील देश मे सामाजिक-मानसिक असंतुलनों का असर दिखना कोई असाधारण बात नही है | परन्तु चिंताजनक यह है कि अभी तक इस पहलू को गंभीरता से लिया ही नही गया है | वर्ल्ड हेल्थ आर्गनाइजेशन के अनुसार भारत अपने स्वास्थ्य बजट का 1 प्रतिशत से भी कम मानसिक स्वास्थ मे खर्च करता है जबकि दूसरे देशों मे यह 10 प्रतिशत, 12 तथा 18 प्रतिशत तक है |
     दर-असल शहरीकरण समाज के फ़ैलाव ने जीवन को जटिल बनाया है | सामाजिक-सांस्कृतिक स्त्रोत शिथिल हुए हैं और पारिवारिक संबधों को भी धक्का पहुंचा है | भारत जैसे विकासशील देशों में भौतिक उपलब्धियों के चलते तेजी से बदलता सामाजिक-आर्थिक परिवेश काफ़ी हद तक जिम्मेदार है | दूसरी तरफ़ इस ओर किए गये प्रयास आगे नही बढ पाये हैं | देश मे मानसिक उलझनें किस गति से लोगों को अपना शिकार बना रही हैं, इसका पता आत्महत्याओं के बढते आंकडों से ही चल जाता है | 2002 से 2012 तक के दशक मे आत्महत्याओं मे 23 प्रतिशत की बढोत्तरी दर्ज की गई है | 2002 मे जहां 1,10,417 लोगों ने इस कदम को उठाया वहीं यह सख्या 2012 मे 1,35,445 तक पहुंच गई |
     देश मे इस समय आत्मह्त्या की दर प्रति एक लाख मे 11.2 है | आत्महत्या के कारणों को जानने के लिए अब तक जो शोध हुए हैं, उनसे प्रमुख रूप से एक बात उभर कर सामने आई है कि मनुष्य भीषण मानसिक विषाद के दौर मे ऐसा करता है | इसमे संदेह नही कि भारतीय समाज मे मानसिक विषाद मे लगातार बढोत्तरी हो रही है | दर-असल जिस तरह से हमारा सामाजिक ताना बाना उपभोक्तावाद के चलते छिन्न-भिन्न हो रहा है, इससे चिंताएं और कुंठाएं बढी हैं | जो अंतत: दिमाग को अपना शिकार बना रही हैं |
     यहां गौरतलब यह भी है कि हमारे देश मे मानसिक विषाद से पीडित हो आत्महत्या करने मे दक्षिण भारत का हिस्सा काफ़ी अधिक है | 2012 के आंकडे बताते हैं कि तमिलनाडू आत्महत्याओं के मामले मे सबसे ऊपर है (16,927 ) उसके बाद महाराष्ट्र (16,112) पश्चिम बंगाल, आंध्रप्रदेश व कर्नाटक (12,753) | यानी इन पांच राज्यों मे कुल आत्महत्याओं का हिस्सा 55.3 प्रतिशत है | यहां यह अध्ययन का विषय है कि आखिर इन राज्यों मे मानसिक विषाद के कारण क्या हैं | आखिर यहां ऐसा क्यों हो रहा है |
     दक्षिण के इन राज्यों के अलावा उत्तर पूर्व के राज्यों : बंगाल, त्रिपुरा, सिक्किम व मिजोरम मे भी आत्महत्या की दर राष्ट्रीय औसत से अधिक है | उत्तर प्रदेश, पंजाब व बिहार जैसे उत्तरी राज्यों मे यह प्रतिशत औसत से कम है, लगभग 4 प्रतिशत | उत्तर प्रदेश एक इस मामले मे थोडा संतोष देता दिखाई देता है | देश की जनसंख्या मे 16.9 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखने वाले इस राज्य की आत्महत्याओं के मामलों मे हिस्सेदारी मात्र 3 प्रतिशत है जबकि राष्ट्रीय दर 11.2 है |
     इस संबध मे गौरतलब यह भी है कि देश के बडे शहरों मे स्थिति लगातार चिंताजनक होती जा रही है | यहां पर भी चैन्नई सबसे अधिक चिंताजनक स्थिति मे दिखाई देता है | इसके बाद बंगलूरू ,  दिल्ली व मुंबई का नम्बर आता है | इसका सीधा सा मतलब है कि देश के बडे शहरों मे तनाव बढता जा रहा है | गौर से देखें तो हमारे शहरों की रोजमर्रा की जिंदगी मे भी यहां तनाव साफ़ झलकने लगा है |
     अपनी ही जिंदगी से मायूस हो दुनिया से अलविदा कहने के कारणों की पडताल करें तो पता चलता है कि इसके दो मुख्य कारण हैं – पारिवारिक समस्याएं व बीमारी | कुल की जाने वाली आत्महत्याओं मे इनका प्रतिशत क्रमश: 25.6 व 20.8 है यानी 46 प्रतिशत आत्महत्याओं के पीछे यही दो मुखय कारण हैं | ऊपरी तौर पर हम जिन कारणों को अधिक जिम्मेदार मानते आये हैं, वह वास्तव मे हैं नही | दहेज ( 1.6 प्रतिशत ) गरीबी (1.9 प्रतिशत ) व प्रेमसंबध (3.2 प्रतिशत ) आदि के कारणों से बहुत कम लोग आत्महत्या करते हैं |
     बहरहाल इसमे कोई संदेह नही कि आर्थिक विकास के साथ जिंदगी की जटिलताएं भी बढ रही हैं और दिमाग की उलझनें भी | बढती महत्वकाक्षाएं, एक्ल परिवार व आत्मकेन्द्रित जीवन शैली आग मे घी का काम कर रही हैं | शहरों मे मष्तिक मे बढता द्वाब रोजमर्रा की जिंदगी मे दिखाई देने लगा है | इसलिए यह जरूरी है कि मानसिक स्वास्थ्य को चिकित्सा का एक महत्वपूर्ण अंग माना जाए तथा दिमागी उलझनों पर अध्ययन किया जाना भी आवश्यक है | इन्हें रोक पाना या कम कर पाना तभी सभव है जब कारणों का सही विश्लेषण हो सके | सबसे जरूरी है मानसिक उपचार की दिशा मे गंभीर प्रयास किए जायें | इससे कई लोगों को उस आखिरी बिन्दु तक जाने से पूर्व ही रोक पाना संभव हो सकेगा 

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