इधर
पिछले कुछ घटनाक्रमों को देखें
तो बात पूरी तरह से साफ हो जाती
है । मामला चाहे धर्म परिवर्तन
(लव जेहाद
) का हो
या फिर बलात्कार व महिला उत्पीडन
का अथवा राजनीतिक प्रेम प्रसंग
या फिर बाबा रामदेव की पुत्रजीवक
औषधी का , एक
अलग किस्म की राजनीति देखने
को मिली है । कहीं कोई गंभीरता
नहीं बल्कि घटिया बयानबाजी
और न्यूज चैनलों की अतार्किक
बहस को देख कर तो आमजन भी यह
समझने लगा है कि हमारे राजनेताओं
मे विषय की जानकारी का नितांत
अभाव है ।
कुछ
समय से महिला सबंधी खबरों पर
तो मानो बेतुके बयानबाजी करने
की एक होड सी लग गई है । मानवीय
संवेदनाओं से जुडी इन खबरों
पर जिस तरह की राजनीतिक चर्चाएं
हुईं, उससे
यह बात साफ हो गई कि हमारी
राजनीतिक बहसों का स्तर अब
अपने न्यूनतम स्तर तक पहुंच
गया है । यही नही, राजनीतिक
लाभ के लिए इन खबरों को लेकर
जो भडकाऊ राजनीति की गई उसने
सारी सीमाओं को लांघ दिया ।
यही नही, इस
शैली ने इस संवेदनशील मुद्दे
को एक पाखंडपूर्ण व्यवहार मे
तब्दील करने मे कोई कोताही
नही बरती । सच तो यह है कि इस
राजनीतिक व्यवहार ने तार्किक
चर्चा व बहस से कुछ ठोस निर्णयों
व नतीजों पर पहुंचने की संभावनाओं
को भी पूरी तरह धुमिल कर दिया
। दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है
कि यह सिलसिला अभी रूका नही
है ।
हाल
की कुछ राजनीतिक घटनाओं को
लेकर जिस राजनीतिक तमाशेबाजी
का प्रदर्शन देखने को मिला,
उसने देश की
राजनीतिक छवि को आहत ही किया
है । भूमि अधिग्रहण अध्यादेश
को लेकर किसानों के हितैषी व
झंडाबरदार बनने की होड मे जो
तमाशे किए जाते रहे हैं उसने
एक तरह से पूरे कृषक समुदाय
का उपहास ही उडाया है । किसानों
की आत्महत्याओं से उपजे बडे
सवाल इस राजनीतिक तमाशे की
भेंट चढ गये । आत्महत्या जैसी
मार्मिक घटनाएं महज राजनीतिक
' हथियार
' बन कर
रह गईं । विरोध की राजनीति
तर्कसंगत है लेकिन विरोध का
तरीका भी मानवीय संवेदनाओं
से कट कर नही होना चाहिए । '
आप ' पार्टी
की रैली मे एक किसान दवारा की
गई आत्महत्या और फिर उसको लेकर
की गई राजनीति से हमारी राजनीतिक
संस्कृति का जो भदेस चेहरा
सामने आया उसने देश मे भविष्य
की राजनीति पर भी गंभीर सवाल
खडे किये हैं ।
बाबा
रामदेव की एक औषधी से जुडा
मामला भी हमारे राजनीतिक
दिवालियेपन का उदाहरण बना ।
' पुत्रजीवक
' नाम की
इस औषधी का कुछ नेताओं ने यह
मतलब निकाल दिया कि इसका उपयोग
पुत्र प्राप्ति के लिए किया
जाता है । देखते देखते तमाम
बडबोले राजनेता बैसिर-पैर
की बहस करने लगे । हमारे टी.वी.
चैनलों को तो
मानो मुंह मांगी मुराद मिल
गई हो । शुरू हो गया चर्चाओं
का दौर । किसी ने भी इस बात पर
तनिक ध्यान देना उचित नही समझा
कि दवा के पैकेट पर साफ लिखा
है कि दवा बंधत्व दोष दूर करने
हेतु है यानी जिन महिलाओं को
किन्हीं कारणों से संतान नही
होती वह इस दवा का उपयोग कर
संतान सुख प्राप्त कर सकते
हैं । लेकिन तत्काल ही नेताओं
की एक ऐसी फौज तैयार हो गई जिसने
इसे पुत्र प्राप्ति से जोड
दिया । और बाबा रामदेव को महिला
हितों के विरूध्द होने का टैग
लगा दिया गया । गैर जिम्मेदारी
और बौध्दिक दिवालियेपन का यह
एक रोचक उदाहरण बना ।
हमारी
इस राजनीतिक संस्कृति से उपजा
एक और मामला पंजाब मे सामने
आया । एक बस मे सवार मां-
बेटी कुछ लोगों
की छेडछाड से बचने के लिए बस
से कूद पडीं जिसमें बेटी की
मौत हो गई । इत्तफाक से बस का
संबध बादल परिवार से था । बस
क्या था । देखते देखते सत्ता
के गलियारों से लेकर सडकों
तक एक् तमाशा शुरू हो गया ।
मौत पर राजनीति का यह रंग देख
किसी का भी मानवीय मूल्यों
से भरोसा उठना स्वाभाविक ही
है ।
बात
यहीं तक सीमित नही है । "आप
" पार्टी
की एक महिला कार्यकर्ता को
लेकर कुमार विश्वास और पूरे
मामले पर जो राजनीतिक तमाशा
खडा किया गया, वह
भी गैर जरूरी ही था । लेकिन अब
मानो यही राजनीति का स्थाई
चरित्र बन गया हो । जिन बातों
को नजर-अंदाज
किया जाना चाहिए, उन्हें
एक बबंडर का रूप देकर खूब
राजनीतिक रोटियां सेंकी जाने
लगी हैं । अलबत्ता इस चुहा दौड
मे न किसी को राजनीतिक मूल्यों
से कोई लेना देना है और न ही
मानवीय संवेदनाओं से । राजनीति
का यह अमानवीय चेहरा और पाखंडपूर्ण
राजनीतिक शैली, देश
को किस दिशा की ओर ले जायेगी,
पता नही । यह
तो समय के गर्भ मे है । लेकिन
इतना तय है कि यह इस लोकतांत्रिक
देश के हित मे कतई नही ।
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