( L.S. Bisht ) हिमालय क्षेत्र आदिकाल से अपने प्राकृतिक
संसाधनों की द्र्ष्टि से समृध्द रहा है | यहां के वन और पहाड तमाम खनिजों व
बहूमूल्य लकडियों के लिए तो जाने ही जाते हैं इसके साथ ही दुर्लभ जडी-बूटियों का
भी भंडार यही हिमालय क्षेत्र है | परन्तु सरकार की उदासीनता तथा किसी योजना के
अभाव में जडी-बूटियों के इस भंडार का यथोचित उपयोग नही हो पाया है और न ही स्थानीय
लोगों को कोई विशेष लाभ पहुंचा है |
इधर कुछ वर्षों से प्राकृतिक द्र्ष्टि से
संपन्न इस हिमालय क्षेत्र का चौतरफ़ा शोषण हुआ है | वनों के निर्मम दोहन से लेकर
खनिज दोहन तक की लंबी कहानी है |
इस शोषण के विरूध्द जाग्रत चेतना का प्रतीक
रहे हैं चिपको आन्दोलन व दून घाटी से उपजी पर्यावरण की संगठित लडाई , जिसका अपना
एक इतिहास रहा है | आज उत्तराखंड के नंगे पहाड और चूना खदानों से आहत हुई दून घाटी
के अलावा जहां तहां खनिज दोहन के फ़लस्वरूप घायल पडी पहाडियां इसका प्रत्यक्ष
प्रमाण हैं |
बात सिर्फ़ यहीं तक सीमित नही रही | अभी
उत्तराखंड के खामोश पहाड इस त्रासदी से उबर भी न सके थे कि सरकारी तंत्र की मिली
भगत व वन विभाग की लापरवाही के फ़लस्वरूप पहाड के वनों से जडी-बूटियों की तस्करी भी
होने लगी | इसका दुखद पहलू यह भी रहा कि काफ़ी समय तक इस संपदा के महत्व और
उपयोगिता पर किसी का ध्यान गया ही नही | यह ऐसे ही चलता रहा |
इस प्रवृत्ति के फ़लस्वरूप आज पहाड के वनों
में अनेक चिकित्सोपयोगी जडी-बूटियों का अस्तित्व ही संकट में पड गया है | यही नही,
बहूमूल्य औषधियों की खोज में कई दुर्लभ किस्म की वनस्पतियों को भी नष्ट किया जा
रहा है |
दुर्भाग्यपूर्ण पहलू तो यह है कि कई बार अवैध
चोरी के ऐसे मामले पकडे भी जाते रहे हैं लेकिन सरकारी तंत्र में व्याप्त
भ्र्ष्टाचार के कारण कुछ नही हो पाता | आज भी उत्तराखंड के सुदूर जंगलों से
जडी-बूटियों की चोरी बदस्तूर जारी है | इसके चलते तस्कर, ठेकेदार व शहरों के कुछ
आयुर्वेदिक दवा कंपनियों के मालिक अपनी जेबें भर रहे हैं |
यहां के अनेक स्थलों पर औषधियों का अथाह
भंडार है | तुंगनाथ, मलारी, पवाली, बिनसर, डांडा क्षेत्र, द्रोणागिरी पर्वतमाला,
टोंस घाटी क्षेत्र व मुन्स्यारी, नंदकोट आदि स्थानों पर अनेक दुर्लभ व बहूमूल्य
जडी-बूटियां मिलती हैं | इसके अतिरिक्त तमाम रोगों में लाभकारी पहाडी फ़ल जैसे
काफ़ल, किंगोड, हरड, रीठा, बेडू, हिसर तो लगभग पूरे उत्तराखंड में मिलते हैं |
लेकिन आज यहां से इनका अवैध व्यापार हो रहा है | यही चीजे मैदानी शहरों मे कई गुना
दामों पर बेची जा रही हैं |
लाइलाज समझी जाने वाली अनेक बीमारियों में
काम आने वाली जडी-बूटियों की इस क्षेत्र मे भरमार है | दमा, गठिया व उदरशूल के लिए
तो यहां अनेक प्रभावकारी औषधि पौधे बहुतायत मे मौजूद हैं | सर्पदंश व अन्य किसी भी
तरह के विष मे काम आने वाली औषधियां भी इस हिमालय क्षेत्र में मिलती हैं | परन्तु
यहां के प्राकृतिक संसाधनों के प्रति जो शोषण की प्रवत्ति पनपी है उससे इन
जडी-बूटियों का अस्तित्व ही खतरे में पड गया है |
कभी मंदाकनी घाटी मे सर्पगंधा व मृत संजीवनी
बहुतायत में मिलती थी लेकिन आज बहुत तलाशने पर ही इनके दर्शन होते हैं | इसी तरह
ब्रहमकुमारी, इसरमूल, वसींगा तथ अपराजिता आदि औषधियां भी संकट के दौर से गुजर रही
हैं| शक्तिवर्धक कई औषधियां तो अब लुप्त होने की कगार में हैं | इन जडी-बूटियों का
महत्व इस बात से ही पता चल जाता है कि आयुर्वेदिक चिकित्सा मे सर्पगंधा, मृत
संजीवनी व अपराजिता जैसी औषधियों का कोई विकल्प नही है |
हिमालय क्षेत्र में पायी जाने वाली इन
औषधियों का स्थानीय लोगों के जीवन से गहरा संबध रहा है | आज भी सुदूर क्षेत्रों
में लोग इन्हीं जडी-बूटियों से तमाम रोगों का इलाज स्वयं कर लेते हैं | सरकारी
अस्पतालों की संख्या बहुत कम है जो हैं भी वह काफ़ी दूर | ऐसे में यह औषधियां ही
इनके काम आती हैं | पहाड की पुरानी पीढी को इन औषधियों का अच्छा ज्ञान था लेकिन
समय के साथ यह परंपरा भी खत्म हो रही है |
आज चिंताजनक यह है कि हमारी गलत नीतियां व
उपेक्षा से यह भंडार खतरे मे है | एक तरफ़ सरकार उदासीन है तो दूसरी तरफ़ स्वार्थी
तत्व इन बहुमूल्य औषधियों का उपयोग अपने हित मे करने लगे हैं | कुल मिला कर वर्षों
से संभाली यह धरोहर अब संकट के दौर से गुजर रही है |
आज जरूरत इस बात की है कि हिमालय के इस
क्षेत्र मे पायी जाने वाली इन जडी-बूटियों का योजनाबध्द अध्ययन व शोध हो तथा
इन्हें सुरक्षित रखने के लिए वन कानूनों मे भी परिवर्तन किया जाए जिससे इनके अवैध
व्यापार को सख्ती से रोका जा सके | अगर समय रहते यह नही किया गया तो एकदिन हिमालय
क्षेत्र में औषधियों का यह भंडार पूरी तरह रिक्त हो जायेगा |