मंगलवार, 21 अक्तूबर 2014

अब महज दीवाली पर है कौडियों का मोल




( L.S. Bisht ) - साल-दर-साल बढती आधुनिकता के बाबजूद तीज-त्योहारों से जुडी अनेक परंपराओं का स्वरूप बहुत बदला नही है । यह माना जाता है कि दीवाली की रात लक्ष्मी घरों में आती है इसलिए आज भी लक्ष्मी के स्वागत के लिए लोग घर के बाहर दीये जलाते हैं । कुछ ऐसी ही आस्थाओं का जुडाव सदियों से रहा है ।
आज बेशक कौडी का कोई मोल न हो लेकिन कभी पूरे देश में कौडी का ही बोलबाला था । एक समय था जब देश में कोई भी आर्थिक लेनदेन इसके बिना संभव ही नही था । आज भी कौडी को लक्ष्मी का प्रतीक समझा जाता है । यही कारण है कि बंगाल में लक्ष्मी पूजन पर अब भी कौडियों से भरी टोकरी की पूजा की जाती है । इसमें कंघी, तेल, इत्र टीका तथा काजल आदि चीजें भी रखी जाती हैं।इसे लक्ष्मी की टोकरी माना जाता है ।
देश के कुछ क्षेत्रों में विशेष रूप से उत्तर प्र्देश, राजस्थान आदि मे दीपावली पर दीये जलाते समय दीपक में कौडी भी डाली जाती है । घर के आंगन में कौडी डाला हुआ दीपक पूरी रात जलता रहता है । धंनतेरस के दिन इसका विशेष महत्व है । दीयों मे रखी गयी इन कौडियों को बच्चे अवसर पाकर उठा ले जाते हैं । ऐसा माना जाता है कि जेब में इन्हें रखने से धन की वृध्दि होती है । जुआ खेलने वाले भी इन्हें जेब में रखना नहीं भूलते ।
गोवर्धन पूजा मे भी कौडियों का महत्व है । पूजा के लिए बनाए जाने वाले पर्वत की आकृति को फूल-पत्तों व अन्य चीजों के अतिरिक्त कौडियों से भी सजाया जाता है । यही नहीं, विवाह अवसर पर जब वधू के हाथों में डोरा-कंगन बांधे जाते हैं तब उनमें कौडी भी पिरोई जाती है । किसी नये मकान के निर्माण के समय भी राई, लोहे का छ्ल्ला और कौडी बांधी जाती है । माना जाता है कि ऐसा करने पर मकान दुष्ट आत्माओं से मुक्त रहेगा ।
मनोरंजन के एक साधन रूप मे चौपड खेलंने की एक पुरानी परंपरा रही है । ऐतिहासिक उल्लेखों से पता चलता है कि मन बहलाने के लिए न सिर्फ राजा-महाराजा अपितु बेगमें भी चौपड खेलती थीं । कौडियों के उपयोग का प्रमाण हमें खुदाई से प्राप्त अवशेषों में भी मिलता है । सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई से प्राप्त वस्तुओं में कौडियां भी प्राप्त हुई हैं ।
कौडियां कई प्रकार की होती हैं । लेकिन मुद्रा रूप मे मात्र दो प्रकार की कौडियों ही चलती थीं । पहली मनी कौडी और दूसरी प्रकार की कौडियां आकार मे छोटी,गोल और चिकनी होती हैं । भारत और आसपास के देशों मे इन्हीं का चलन था ।
इन कौडियों ने संसार के विभिन्न देशों की अर्थव्यवस्था व सामाजिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । इनके महत्व का पता इस बात से ही चल जाता है कि जब धातु के सिक्के चलने लगे तब भी कौडियों का प्रचलन आमजन के बीच चलता रहा । 1930 के आसपास दिल्ली के ग्रामीण क्षेत्रों मे एक पैसा सौलह कौडियों के बराबर था ।
बहरहाल अब जमाना बहुत आगे निकल आया है । पूरे देश में रूपया भारतीय मुद्रा के रूप मे विनिमय का माध्यम बना हुआ है । मुद्रा के अलावा सोना व चांदी व्यक्ति की हैसियत का प्रतीक है । ऐसे मे कौडी का आर्थिक क्षेत्र मे कोई दखल नहीं रह गया है । अलबत्ता इसका धार्मिक महत्व बरकरार है और इसीलिए दीपावली पर कौडियों की तलाश शुरू हो जाती है । लेकिन यह महत्व भी कब तक बना रहेगा पता नहीं 

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