शनिवार, 26 अक्तूबर 2019

अब कहां है वह त्योहार


     

      वक्त के साथ हमारे इन त्योहारों का स्वरूप तेजी से बदल रहा है | सही अर्थों में यह बदलता स्वरूप हमें त्योहार के सच्चे उल्लास से कहीं दूर ले जा रहा है |

     अगर थोडा पीछे देखें तो पता चलता है कि कुछ समय पहले तक दीपावली की तैयारियां महीना भर पहले से ही शुरू हो जाया करती थी | महिलाएं दीवारों, दरवाजों और फ़र्श को सजाने का काम स्वयं करती थीं | पूरा घर अल्पना व रंगोली से सजाया करतीं लेकिन आज कहां है हाथों की वह सजावट | बडे उत्साह के साथ दीये खरीदे जाते | उन्हें तैयार किया जाता और फ़िर तेल और बाती डाल कर उनसे पूरे घर को दुल्हन की तरह सजा दिया जाता था | लेकिन अब किसे है इतनी फ़ुर्सत | बिजली के रंगीन बल्बों की एक झालर डाल सजावट कर दी जाती है | लेकिन कहां दीये की नन्ही लौ का मुण्डेर-मुण्डेर टिमटिमाते जलना और कहां बिजली के गुस्सैल बलबों का जलना- बुझना | परंतु यही तो है बदलाव की वह बयार जिसने इस त्योहार के पारंपरिक स्वरूप को डस लिया है | यही नही, अब कहां है पकवानों की वह खुशबू और खील, गट्टों से भरी बडी-बडी थालियां जो बच्चों को कई कई दिन तक त्योहार का मजा देते थे |

     दर-असल आज हमारे जीने का तरीका ही बदल गया है | इस नई जीवन शैली ने हमें अपने त्योहारों मे निहित स्वाभाविक उल्लास से काट दिया है | अब तो लोग दीपावली के दिन ही पटाखे और मिठाइयां खरीदने दौडते हैं | मिठाई भी ऐसी कि चार दिन तक रखना मुश्किल हो जाए |

     खुशियों का यह पर्व अब फ़िजूलखर्ची का पर्व भी बन कर रह गया है | शहरों मे बाजार ह्फ़्ता भर पहले से ही जगमगा उठते हैं | चारों ओर तामझाम और मंहगी आधुनिक चीजों से बाजार पट सा जाता है | महंगी मिठाइयां, मेवे, गिफ़्ट पैक, खेल-खिलौने, चांदी-सोने की मूर्तियां और सिक्के और भी न जाने क्या-क्या | इन सबके बीच दीपावली से जुडी पारंपरिक चीजें धीरे-धीरे गायब हो रही हैं |

     पारम्परिक आतिशबाजी का स्थान ले लिया है दिल दहला देने वाले बमों और पटाखों ने | एक से बढ कर एक महंगे पटाखे | हर साल करोडों रूपये के पटाखे दीपावली के नाम फ़ूंक दिए जाते हैं | सरकार और गैर सरकारी संगठनों की तमाम अपीलें भुला दी जाती हैं | बल्कि अब तो मुहल्ले स्तर पर आतिशबाजी की होड सी लगने लगी है कि कौन कितने तेज और देर तक आतिशबाजी कर सकता है | यह एक तरह से पटाखों की नही बल्कि दिखावे की होड है जिसे बाजार संस्कृति ने विकसित किया है |

            कुछ ऐसा ही बदल गया है इस दिन घर-मकान की सजावट का स्वरूप | अब दीये की झिलमिलाती बती का स्थान ले लिया है बिजली की सजावट ने | किस्म किस्म की लकदक झालरें और सजावटी कलात्मक मंहगी मोमबत्तियां | बेचारे मिट्टी के दियों का कोई पुरसाहाल नहीं | कुछ तो तेल महंगा और कुछ बदली रूचियों व अधुनिकता की मार |
     दीपावली पर उपहार देने की भी परम्परा रही है | लेकिन उपहार व तोहफ़ों का यह स्वरूप भी मिठाई अथवा खील बताशों तक सीमित नहीं रहा | सजावटी घडी, चांदी के खूबसूरत सिक्के, कलात्मक मूर्तियां व गहने, डिब्बाबंद मेवे और भी तमाम चीजें जुड गई है उपहार-तोहफ़ों से | यही नही, विदेशी शराब की बोतलों को भी उपहार मे देने की संस्कृति तेजी से विकसित हुई है | विदेशी चाकलेट के महंगे गिफ़्ट पैक भी उपहार मे दिये जाने लगे हैं | विज्ञापन संस्कृती ने इसकी जडें जमाने मे मह्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है |

     कुल मिला कर देखें तो इस त्योहार पर जो उत्साह, उल्लास कभी हमारे दिलो-दिमाग में बरबस घुल जाया करता था, अब चोर दरवाजे से बस एक परम्परा का निर्वाह करते हुए आता है | सच तो यह है कि त्योहार के नाम पर हम अपने संस्कारों व परम्परा का निर्वाह भर कर रहे हैं और वह भी इसलिए कि सदियों से पोषित विचारों से हम अपने को एक्दम से अलग नहीं कर पा रहे हैं | आधुनिकता और परंपरा के बीच हम संतुलन बनाने की जिद्दोजहद मे में उलझे हुऐ हैं | महंगे होते इस त्योहार के साथ मध्यम वर्ग तो येन-केन अपने कदम मिलाने मे समर्थ हो पा रहा है लेकिन कामगारों से पूछिए कि महंगा होता यह त्योहार उनकी जिंदगी को कितना छू पा रहा है | उनके चेहरे की मायूसी बता देगी कि रोशनी का यह त्योहार बदलते स्वरूप में उनकी अंधेरी जिंदगी के अंधेरों को कहीं से भी छू तक नहीं पा रहे हैं |
    
     बहरहाल तेजी से बदल रहा है दीपावली का स्वरूप | धन-वैभव, सामर्थ्य प्रदर्शन, चकाचौंध, दिखावा व स्वार्थ की जो प्रवत्ति तेजी से विकसित हो रही है इससे तो इस पर्व का मूल उद्देश्य ही खत्म हो जाऐगा | दूसरे पर्वों व उत्सवों की तरह इसे तो एक त्योहार की तरह ही हमारी जिंदगी से जुडना चाहिए |

    
    

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2019

घटिया राजनैतिक फ़ुहडता



राजनीति की इस शर्मनाक फ़ुहडता के बीच आज याद आ रहा है दिल्ली के एक प्रतिष्ठित दैनिक का वह संपादकीय जो उस समय लिखा गया था कि जब इंदिरा जी की हत्या हुई थी | जब पूरे देश मे सहानुभूति की लहर चल रही हो तब इंदिरा जी की गलत और घटिया राजनीति को उनकी मौत के लिए जिम्मेदार बताना वाकई मे एक साहस का काम था |

     संपादकीय मे लिखा गया था कि किस तरह  इंदिरा जी ने पंजाब मे मजबूत अकाली राजनीति को तोडने के लिए जो गंदी राजनीति का खेल खेला उस राजनीति ने  ही उन्हें लील लिया | राजनीति के जानकार यह बखूबी समझते हैं कि पंजाब मे ऐसा किया गया और उस राजनीति के गर्भ से ही भिंडरावाला का जन्म हुआ था | फ़िर इस भस्मासुर को मारने के लिए आपरेशन ब्लू स्टार करना पडा और अंतत: आपरेशन ब्लू स्टार ही इंदिरा जी की हत्या का कारण भी बना |

     ऐसी ही गंदी राजनीति की एक शुरूआत कभी मायावती जी ने भी की थी  जब उन्होने दलित राजनीति मे अपनी पैठ  बनाने के लिए नारा दिया था “ तिलक, तराजू और तलवार,इनको मारो जूते चार “ | इस विषैले ब्र्ह्मास्त्र का घातक प्रभाव पडा और सदियों से दबे कुचले दलित समुदाय ने एक महिला को ताकतवर समझे जाने वाले सवर्ण समुदाय को इस तरह गरियाते देख उसे अपना नेता मान लिया | वही  मायावती जी देखते देखते दलित समुदाय की एक ताकतवर नेता के रूप मे उभर गईं और कांग्रेस को अपने दलित वोट बैंक से हाथ धोना पडा | दूसरे दलों का तो कोई पुरसाहाल नही |

     सवर्ण जातीय समूहों को सरेआम गरियाते हुए उन्होने जिस राजनीतिक संस्कृति को अपने हितों के लिए अपनाया आज वही जातीय राजनीति की फ़सल विभत्स रूप मे लहलहा रही है |     किसने किसको गाली दी और किसकी गाली ज्यादा बुरी थी, सवाल इस बात का नही है | यहां समझना यह जरूरी है कि गालियों को राजनीतिक हथियार बना कर हित साधने की यह शैली आई कहां से ? किसने इसकी पहल की ?

     यह नही भूलना चाहिए कि भस्मासुर देर सबेर उसे भी लील जाता है जिसने उसे पैदा किया | वैसे अच्छा तो यह होगा कि सभी राजनीतिक दल महसूस करें कि गंदे और घटिया राजनैतिक हथकंडे अंतत: ऐसे ही माहौल का सृजन करते हैं जैसा आजक्ल दिखाई दे रहा है | देश और समाज हित मे इस बात को जितना जल्दी महसूस कर लिया जाए उतना अच्छा है | 


रविवार, 7 अप्रैल 2019

चुनावी राजनीति का यह कैसा बदलता रंग



  चुनाव का शंखनाद बजते ही शुरू हो गया  है जयकारों का सिलसिला | और इसके साथ ही  शुरू हो गये वादों, दावों व घात- प्रतिघात की चुहा दौड जिसे अभी अपने चरम पर पहुंचना बाकी है | 

यही नही दिखने लगा है  भारतीय राजनीति का वह  चेहरा जो साल दर साल  कुरूप होता जा रहा है अब इस बात की संभावना कहीं नही दिखती कि  राजनीति  अपने पुराने दौर की तरफ वापसी कर सकेगी । वह दौर जो मूल्यों की राजनीति का सुनहरा दौर रहा है |  दर-असल वोट के माध्यम से जनसमर्थन जुटाने व सरकार बनाने  के महत्व ने ही इसे इस स्थिति मे ला खडा किया है


          क्या यह जानना अफसोसजनक नही कि वोटों के लिये हमारे कुछ राजनीतिक दल उन चेहरों को भी अपना पोस्टर ब्वाय बनाने लगे हैं जो देश के टुकडे टुकडे होने का सपना संजोये हुये हैं | इन दलों को इस बात से कोई फ़र्क नही पडता कि उनके स्वर देश हित मे हैं या उनसे देश्द्रोह की बू आती है | दुखद तो यह भी है कि देश मे उनके स्वर मे अपने  स्वर मिलाने वालों की भी कमी नही और मीडिया का एक वर्ग उनके एजेंडा को आगे बढाने का काम करने मे जुटा दिखाई देता है |

          वोट राजनीति के इस घिनौने चेहरे को क्या अब भारतीय जनमानस की बदलती सोच का एक संकेत मान लिया जाए या फिर खलनायकों को राजनीति मे महिमा मंडित कर हीरो बनाने की एक घृणित राजनीतिक सोच क्या अब भारतीय चुनावी राजनीति का दर्शन कुछ इस तरह से बदलने जा रहा है जिसमे राष्ट्र्हित को  अप्रासंगिक मान लेने की सोच् आकार लेती दिखाई दे रही है

          बदलते सामाजिक परिवेश मे शायद यह माना जाने लगा है कि आज के युवाओं के लिए गांधी या नेहरू यक़ फ़िर पटेल  सिर्फ इतिहास मे दर्ज एक किताबी आयकन बन कर रह गये हैं जिनकी युवा सोच मे कोई प्रासंगिकता नही रही युवाओं के लिए वह विद्रोही चरित्र आदर्श हैं जो पूरी मुखरता के साथ शासन -सत्ता के विरूध्द किसी भी  सीमा तक जा सकने का साहस रखते हैं । इसमे कोई फर्क नही पडता कि वह पारंपरिक मूल्यों व आदर्शों के विरूध्द है या फिर देश प्रेम की अवधारणा को ही खारिज कर रहे हैं । शायद यह मानते हुए ही गैर भाजपा राजनीतिक दल इन्हें अपनी चुनावी रणनीति का एक अहम हिस्सा बनाने के प्रयोग से भी गुरेज नही कर रहे ।

          यह जानना समझना भी जरूरी है कि क्या केन्द्र मे गैर कांग्रेसी सत्ता का वर्चस्व दीगर राजनीतिक विचारधाराओं को पारंपरिक चुनावी सोच से हट कर कुछ अलग और नया करने को विवश कर रहा है अगर ऐसा है तो  यह उनके अंदर पनपी राजनीतिक असुरक्षा हाशिए पर चले जाने की चिंता को भी उजागर कर रहा है
            बहुत संभव है कि गत आम चुनावों मे जिस तरह से मोदी एक चमत्कारिक छवि के रूप मे पूरे देश को अपने मोह पाश मे बांध एक अकल्पनीय चुनावी जीत के नायक बने उसने गैर भाजपा राजनीतिक दलों मे राजनीतिक असुरक्षा की भावना को पैदा करने मे अहम भूमिका निभाई हो

                        लेकिन कारण कुछ भी हों, अगर चुनावी राजनीति का यह चेहरा सामने आता है तो शायद भविष्य मे देश के अंदर सच्चे हीरो बनने की नही बल्कि विलेन बनने की भी एक होड  आकार लेती दिखाई देगी और यह देश हित के नजरिये से ताबूत मे एक और कील  साबित होगी