गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

महज मोमबत्तियों से दूर न होगा अंधेरा



इधर कुछ समय से सामाजिक मुद्दों को लेकर भारतीय समाज मे एक अलग तरह की भावुकता दिखाई देने लगी है । भावनाओं का यह सैलाब जब तब अपने पूरे वेग के साथ आता है और जनमानस मे कुछ समय तक हलचल मचा कर कुछ इस तरह से विदा हो जाता है कि मानो कुछ हुआ ही नही । इस सैलाब के गुजर जाने के बाद कुछ भी शेष नही रह जाता । मामला चाहे निर्भया का हो या फिर अरूणा शानबाग का या  मणीपुर की चानू शर्मिला का अथवा समय समय पर होने वाली अमानवीय घटनाओं से उपजी संवेदनाओं का । सभी मे भावनात्मक प्रतिक्रियाओं का स्वभाव व चरित्र कमोवेश एक जैसा रहा है ।

दर-असल इसे एक विडंबना ही कहेंगे कि जब तक कोई इंसान जिंदा रहता है उसके रोज-ब-रोज के संघर्षों की सुध लेना वाला कोई नही होता । एक दिन जब यकायक पता चलता है कि उसने उस व्यवस्था से लडते हुए जिंदगी से ही अलविदा कह दिया,  भावनाओं और आंसूओं का जो सागर उमडता है उसका कोई किनारा दिखाई नही देता । कुछ अपवाद छोड दें तो इस तरह के भावनात्मक विस्फोट का कोई विशेष प्रभाव सामाजिक-राजनीतिक तंत्र पर पडता दिखाई नही देता । कुछ दिनों की हलचल, बहस व चर्चाओं के बाद सबकुछ पहले की तरह ही चलने लगता है ।

अभी हाल मे निर्भया मामले मे नाबालिग अपराधी को जेल से छोडे जाने के मामले मे फिर वही नजारा देखने को मिला जैसा घटना के समय दिखाई दिया था । हजारों की भीड मोमबत्ती लेकर सडकों पर आ जाती है और पूरे जोश खरोश के साथ लचर प्रशासनिक व न्यायिक व्यवस्था का विरोध करती है लेकिन वहीं दूसरे दिन कुछ ऐसा भी देखने को मिलता है जो इन मोमबत्तियों पर सवालिया निशान लगा देता है ।

मोमबत्तियों के रूप मे समाज की यह संवेदना बेशक मीडिया का ध्यान अपनी ओर खींच कर वाही वाही लूटती है लेकिन जब दूसरे ही दिन दुष्कर्म की शिकार कोई लडकी बेसुध सडक किनारे सहायता की उम्मीद मे हाथ उठाती है तो उसकी तरफ देखने वाला कोई नही होता । गौर करें तो निर्भया मामले मे भी ऐसा ही हुआ था । सडक किनारे नग्न अवस्था मे भीषण ठंड के बीच वह सहायता की गुहार लगाते रहे लेकिन दिल्ली के वही लोग अनदेखा कर आगे बढते गये । किसी को उस लडकी व उसके मित्र की हालत पर दया नही आई । लेकिन दूसरे ही दिन वही लोग मोमबत्ती लेकर अपनी सहानुभूति व्यक्त कर रहे थे ।

बस या रेल के सफर मे जब कोई महिला या लडकी गुंडों के दवारा परेशान की जाती है तब सभी खामोशी से तमाशा देखते हैं । यही नही, भावनाओं के इस विस्फोट पर तब फिर एक सवालिया निशान लगता है जब कोई भी यात्री जिसमे महिलाएं भी शामिल हैं , किसी गर्भवती महिला को नीचे की बर्थ देने को तैयार नही होती  । अभी हाल मे गोरखधाम एक्सप्रेस की स्लीपर बोगी मे अकेली सफर कर रही गर्भवती महिला गीता देवी के साथ यही हुआ । उसने लाख विनती की लेकिन किसी ने भी उसे अपनी नीचे की बर्थ उपलब्ध नही कराई जब कि वह उस हालत मे ऊपर की बर्थ पर चढ पाने मे बेहद परेशानी महसूस कर रही थी । अंतत: एक रिटार्यट फौजी ने उसकी सहायता की तथा उसे अपनी बेटी की निचली बर्थ उपलब्ध कराई । आए दिन ऐसे अमानवीय द्र्श्य देखने को मिलते हैं ।

सवाल उठता है कि यह कैसी संवेदना है जो मोमबत्तियों के रूप मे तो जब तब दिखाई देती है और हमे भावविभोर कर देती है लेकिन जब उस संवेदना की सबसे ज्यादा जरूरत होती है तो वह कहीं नही दिखाई देती ।

 कहीं ऐसा तो नही कि ' सिस्टम ' और प्रशासन  को सारी बुराईयों की जड बता कर हम अपने को किनारा कर लेते हैं । लेकिन यह शायद ही कभी सोचते हों कि इस ' सिस्टम ' को चलाने वाले कहीं न कहीं हम ही हैं । अलग अलग चेहरों व चरित्र के रूप मे हम ही ' सिस्टम ' का सृजन करते हैं । बहरहाल स्वस्थ सामाजिक परिवेश के लिए जरूरी है कि हम भावुक होकर प्रतिक्रिया न करें अपितु बुराईयों को जड से समझने का प्रयास करें । हमारी क्षणिक भावुकता से ऐसी समस्याओं का अंत नही होने वाला । बुराइयों के विरूध्द हमारी भी भागीदारी बेहद जरूरी है । 

मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

कैसे पूरा हो स्वच्छ व प्रदूषण मुक्त भारत का सपना


केजरीवाल जी का दिल्ली को प्रदुषण मुक्त देखने की हसरत हो या फिर मोदी जी का स्वच्छ भारत का सपना , भला कैसे पूरे  हों । यहां तो हर कुंए मे भांग पडी है । सामाजिक हित वाले इन प्रयासों के संदर्भ मे जब हम समाज की ओर देखते हैं तो यहां एक आत्मकेन्द्रित, स्वार्थपूर्ण समाज ही दिखाई देता है । जिसे देश व समाज के हित से ज्यादा अपने हित सुहाते हैं । अब ऐसे मे तमाम अच्छे प्रयासों की अकाल मौत का होना कोई अचरज की बात नही ।

मौजूदा प्रयासों के अतिरिक्त भी समय समय पर ऐसे तमाम प्रयास किये जाते रहे हैं । सामाजिक  हित के लिए किये गये उन तमाम प्रयासों मे अपवाद छोड कर शायद ही आशातीत परिणाम मिले हों । बढते प्रदूषण को रोकने के लिए प्लास्टिक के उपयोग पर रोक लगाने के प्रयास किये गये । थोडे समय के लिए कुछ अच्छे संकेत मिले भी लेकिन बहुत जल्द सबकुछ भुला दिया गया । बाजारों व दुकानों मे तथा दैनिक उपयोग मे प्लास्टिक की पन्नियों का धडल्ले से उपयोग आज भी जारी है । चुनाव प्रचार मे भी प्लास्टिक से बनी सामग्री का उपयोग बद्स्तूर जारी है । इसी तरह सार्वजनिक स्थलों मे ध्रुमपाम न करने के लिए कानून बनाया गया । इसके लिए दंड का भी प्राविधान है लेकिन लचर क्रियांवयन के चलते यह भी बस एक कानून बन कर रह गया है । लोगों को सार्वजनिक स्थलों पर ध्रुमपान करते देखा जा सकता है । तंबाकू गुटका पर रोक लगाई गई लेकिन कानून को बाई पास करके आज भी लोग धडल्ले से उसका उपयोग कर रहे हैं । बस फर्क यह है कि तम्बाकू पाउच  और सादे  मसाले के पाउच को अलग  अलग करके बेचा जा रहा है ।

अभी हाल मे उत्तरप्रदेश सरकार ने खुली सिगरेट की बिक्री पर प्रतिबंध लगाया है । अब कोई भी दुकानदार सिगरेट की डिब्बी तो बेच सकता है लेकिन खुली एक या दो सिगरेट नही । लेकिन क्या ऐसा हो पाया है ? आज भी खुली सिगरेट की बिक्री यथावत जारी है । बस फर्क इतना है कि पुलिस को एक और कमाई का जरिया दे दिया गया । उनकी मुट्ठी गरम कीजिए और खुली सिगरेट आराम से बेचिए ।

अब रही बात देश को स्वच्छ रखने की तो वह देश साफ सुथरे रह सकते हैं  जहां के नागरिक कूडेदान न मिलने पर केले का छिलका या पैकेट का रेपर अपनी जेब मे डालना बेहतर समझते हैं बजाय इसके कि उसे सडक पर फेंक दें । आज हम जिन यूरोपीय देशों के अनुसरण करने की बात करते हैं वहां की बेहतरी मे कानून से ज्यादा नागरिकों के ' सिविक सेंस ' की भूमिका महत्वपूर्ण है ।  लेकिन यहां तो अपना कूडा पडोसी के घर के सामने डाल देने मात्र से ही सफाई का कर्तव्य पूरा हो जाता है । बाकी सफाई तो बहुत दूर की बात है । अब ऐसे मे कैसे पूरा हो स्वच्छ भारत का सपना । चार दिन का तमाशा करना एक अलग बात है ।

प्रदूषण से ज्यादा जहां दिखावे की प्रवत्ति सोच मे प्रभावी हो तथा कार एक स्टेटस सिम्बल हो और रिश्तेदारों को दिखाने की चीज हो वहां सडकों पर कारों की संख्या को सीमित किया जा सकेगा, मुश्किल ही लगता है । यहां स्वयं की कार से जाना समृध्दि का प्रतीक माना जाता है और बस व मेट्रो को आम आदमी के साधन के  रूप मे समझा जाता है । वैसे यातायात के लिए सार्वजनिक साधनों की कमी को भी एक कारण माना जाता है । लेकिन अगर प्रर्याप्त संख्या मे सार्वजनिक साधनों को उपलब्ध करा दिया जाए तो क्या लोग उनके उपयोग को प्राथमिकता देंगे, इस सवाल का उत्तर मिलना बाकी है । बहरहाल बडा रोचक रहेगा केजरीवाल जी के प्रदूषण मुक्त  सपने के भविष्य को  भी देखना ।

दर-असल  आजादी के बाद हमें वह संस्कार ही नही मिले जिनकी उम्मीद अब जनसामान्य से की जा रही है । जिन देशों का  अनुसरण करने का प्र्यास किया जा रहा है वहां लोगों को राष्ट्र्भक्ति , राष्ट्रहित व सामाजिक सरोकार जन्म से ही  घुट्टी मे पिलाये गये हैं । यहां तो विकास और समृध्दि को जो दिशा दी गई उसमें इन विचारों का कोई स्थान ही नही है । भारतीय समाज मे  आत्मकेन्द्रित खुशहाली की सोच के बीच भला किसी को इन बातों से क्या मतलब ।

रही बात कानून की तो जिस देश मे कानूनों के क्रियान्वयन मे ही ईमानदारी न हो वहां बनाये कानूनों के परिणामों के बारे मे सोचा जा सकता है । सच तो यह है कि कानूनों को जमीनी स्तर पर लागू करने वाली मशीनरी ही उनके क्रियांवयन के प्रति गंभीर व ईमानदार नजर नही आती । वैसे भी जहां कानून  मानने से ज्यादा कानून तोडने की परंपरा हो वहां सकारात्मक परिणामों की उम्मीद स्वत: कम हो जाती है ।   वैसे भी कहावत है कि घोडे को खींच कर तालाब तक तो लाया जा सकता है लेकिन जबरदस्ती उसे पानी नही पिलाया जा सकता । ऐसा  ही कुछ इन सुधार कार्यक्रमों के साथ भी है । गंदगी फैलाने के दस बहाने और कार सडक पर लाने के भी दस बहाने । कानून को बाई पास करने के भी दस तरीके । बेचारा भारतीय कानून बस टुकर टुकर देखता भर रह जाए ।



मंगलवार, 8 दिसंबर 2015

असहिष्णुता के शिकार कश्मीरी पंडितों की व्यथा


( एल.एस. बिष्ट ) -संसद से लेकर सडक तक और आम आदमी से लेकर खास आदमी तक अगर कोई चीज चर्चा मे है तो वह है देश के सामाजिक परिवेश को लेकर उठा सहिष्णुता बनाम असहिष्णुता का मुद्दा । कुछ राजनीति दलों व समाज के एक छोटे वर्ग को महसूस होता है कि देश का सामाजिक परिवेश बिगड रहा है । इन्हें धार्मिक आधार पर आक्रामक होता समाज दिखाई दे रहा है । यहां गौरतलब यह है कि असहिष्णुता को देश मे अल्पसंख्यक वर्ग के हितों से जोड कर देखा जा रहा है । लेकिन आशचर्यजनक रूप से इस बहस मे उन लोगों की पीडा को सिरे से दरकिनार कर दिया गया है जो सही अर्थों मे असहिष्णुता के शिकार बने तथा आज भी उस दंश को झेलने के लिए अभिशप्त हैं ।

क्या यह कम अचरज की बात नही कि कश्मीर घाटी से कश्मीरी पंडितों के पलायन व उनके नरसंहार को पूरी तरह नजर-अंदाज किया जा रहा है । इनके पलायन को मानो एक साधारण घटना स्वीकार कर लिया गया हो । अतीत मे देखें तो कश्मीर घाटी से कश्मीरी पंडितों का पलायन असहिष्णुता का सबसे अच्छा उदाहरण है । एक क्षेत्र विशेष से एक वर्ग विशेष के लोगों को बल पूर्वक बाहर कर देना क्या असहिष्णुता नही है ? बात यही तक नही है । अभी कुछ समय पूर्व जब कश्मीरी पंडितों को दोबारा घाटी मे बसाये जाने की बात कही गई तब वहां के एक  वर्ग और अलगाववादी  नेताओं ने आसमान सर पर उठा लिया था ।


घाटी मे सक्रिय लगभग सभी अलगाववादी गुटों का मानना है कि अगर कश्मीरी पंडित घाटी मे अपने पुश्तैनी घरों मे आना चाहें तो बहुत अच्छा है लेकिन उनके लिए अलग कालोनी बनाये जाने से इजराइल और फलस्तीन जैसे हालात पैदा हो जायेंगे । जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट हो या आल पार्टी हुर्रियत  कांफ्रेस के गिलानी सभी इसका एक स्वर से विरोध कर रहे हैं । जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के मुहम्मद यासीन मलिक ने तो यहां तक कहा   कि मुफ्ती मोहम्मद सईद अब यहां आर.एस.एस. के ऐजेंडे को लागू करने जा रहे हैं ।

यह सब देखते हुए तो  कश्मीरी पंडितों को घाटी मे दोबारा बसाना सरकार के लिए आसान काम तो कतई नही दिख रहा । लेकिन दूसरी तरफ पिछ्ले 25 सालों से वनवास झेल रहे इन वाशिंदों को फिर इनके घरोंदों मे बसाना भी जरूरी है । आखिर यह कब तक दर-दर की ठोकरें खाते रहेंगे । सवाल यह भी कि आखिर क्यों ।

शरणार्थी शिविरों मे तमाम परेशानियों के बीच इनकी एक नई पीढी भी अब  सामने आ गई है और वह जिन्होने अपनी आंखों से उस बर्बादी के मंजर को देखा था आज बूढे हो चले हैं । लेकिन उनकी आंखों मे आज भी अपने घर वापसी के सपने हैं जिन्हें वह अपने जीते जी पूरा होता देखना चाहते हैं । इधर केन्द्र मे भाजपा सरकार के सत्ता मे आने के बाद और फिर जम्मू-कश्मीर मे भाजपा की सरकार मे साझेदारी ने इनकी उम्मीदों को बढाया है । इन्हें लगने लगा है कि मोदी सरकार कोई ऐसा रास्ता जरूर निकालेगी जिससे वह अपने उजडे हुए घरोंदों को वापस जा सकेंगे ।

दर-असल घाटी मे कभी इनका भी समय था । डोगरा शासनकाल मे घाटी की कुल आबादी मे इनकी जनसंख्या का प्रतिशत 14 से 15 तक था लेकिन बाद मे 1948 के मुस्लिम दंगों के समय एक बडी संख्या यहां से पलायन करने को मजबूर हो गई । फिर भी 1981 तक यहां इनकी संख्या 5 % तक रही । लेकिन फिर आंतकवाद के चलते 1990 से इनका घाटी से बडी संख्या मे पलायन हुआ ।  उस पीढी के लोग आज भी 19 जनवरी 1990 की तारीख को भूले नही हैं जब मस्जिदों से घोषणा की गई कि कश्मीरी पंडित काफिर हैं और वे या तो इस्लाम स्वीकार कर लें या फिर घाटी छोड कर चले जाएं अन्यथा सभी की हत्या कर दी जायेगी । कश्मीरी मुस्लिमों को निर्देश दिये गये कि वह कश्मीरी पंडितों के मकानों की पहचान कर लें जिससे या तो उनका धर्म परिवर्तन कराया जा सके या फिर उनकी हत्या । इसके चलते बडी संख्या मे इनका घाटी से पलायन हुआ । जो रह गये उनकी या तो ह्त्या कर दी गई या फिर उन्हें इस्लाम स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पडा ।

इसके बाद यह लोग बेघर हो देश के तमाम हिस्सों मे बिखर गये । अधिकांश ने दिल्ली या फिर जम्मू के शिविरों मे रहना बेहतर समझा । इस समय देश मे 62,000 रजिस्टर्ड विस्थापित कश्मीरी परिवार हैं । इनमे लगभग 40,000 विस्थापित परिवार  जम्मू मे रह रहे हैं और 19,338 दिल्ली मे । लगभग 1,995 परिवार देश के दूसरे हिस्सों मे भी अपनी जिंदगी बसर करने को मजबूर हैं ।

दुर्भग्यपूर्ण तो यह है कि जहां  पूरे देश मे असहिष्णुता पर बहस चल रही है । देश के बहुसंख्यक वर्ग को इसके लिए कटघरे मे खडा किया जा रहा वहीं दूसरी तरफ सही अर्थों मे  असहिष्णुता के शिकार बने कश्मीरी पंडितों  के दर्द और बेचारगी पर कोई मुखर हो बोलने को तैयार नही । सवाल उठता है कि आखिर कब तक घाटी का माहौल उनके लिए असहिष्णु बना रहेगा, क्या इस पर भी  कभी कोई राजनीतिक दल व बुध्दिजीवी  विचार करने की जहमत उठायेगा ।



बुधवार, 25 नवंबर 2015

मुस्लिम वोट की राजनीति का साइड इफेक्ट

आमिर खान ने जो कुछ कहा उसमे उनका दोष नही बल्कि यह हमारी मुस्लिम वोट की राजनीति का साइड इफेक्ट है जो अब सतह पर दिखाई देने लगा है गौरतलब यह भी है कि यह असहिष्णुता का विवाद मोदी सरकार के सत्ता मे आते ही शुरू हो गया था लेकिन दादरी घटना के बहाने इसे सोच समझ कर सतह पर लाया गया तथा उसका लाभ भी बिहार चुनाव मे विपक्ष को मिला । अब इस विवाद को मोदी सरकार के खिलाफ एक हथियार के रूप मे इस्तेमाल किया जाने लगा है । संसद को इसी बहाने न चलने देने की भी योजना है । लेकिन इतने शोर शराबे के बाबजूद जमीनी सच्चाई को देखने का प्र्यास करें तो ऐसी असहिष्णुता कहीं नही दिखाई देती । लेकिन वोट की राजनीति ने इसे एक सामाजिक संकट के रूप मे प्रचारित करने मे कोई कोर कसर नही छोडी है । देखा जाए तो यह वोट की राजनीति इस देश के चेहरे को आहिस्ता आहिस्ता एक घिनौने चेहरे मे तब्दील करने लगी है

अभी तो सिर्फ खाते पीते मुस्लिम वर्ग को यहां असहिष्णुता दिखाई दे रही है । मुस्लिम समुदाय का वह वर्ग जो सामाजिक रूप से सबसे ज्यादा सुरक्षित है तथा जिसकी समाज मे एक अलग पहचान भी है वह बेवजह की असुरक्षा की बात कह कर माहौल को खराब करने लगा है । आमीर से पहले शाहरूख खान ने भी इसी तरह नकारात्मक विचार प्रकट किये थे । जिसकी काफी आलोचना हुई थी । लेकिन अगर इस प्रकार के प्रयासों पर अंकुश न लगाया गया तो वह समय दूर नही जब यही भाषा यहां जातीय वर्गों मे भी बोले जाने लगेगी यह सबकुछ इसलिए हो रहा है क्योंकि सम्प्रदाय जातीय समूहों को भय दिखा कर वोट के सौदागर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं

दलित, महादलित, वंचित, पिछ्डा, शोषित जैसे शब्दों के बीज इसी सोच के तहत समाज मे छिडक दिये गये हैं अब उन बीजों से उत्पन वोट की फसल को काटा जा रहा है इसी वोट लोलुपता के तहत धर्म, आस्था, भाषा क्षेत्रीय अस्मिता के विवाद जब तब सर उठाते रहे हैं लेकिन अब यह विवाद और तीखे होगे अगर वोट की राजनीति इसी तरह परवान चढती रही

कोढ पर खाज यह है कि सीधी, सच्ची बात कहना उतना ही कठिन होता जा रहा है पाखंडी मीडिया का एक वर्ग देश के पाखंडी लोगों से मिल कर सही बातों पर ही " विवादास्पद " का टैग लगा देता है और मीडिया सम्मोहित भारतीय जनमानस उसे ही सही समझने लगता है

किसी भी बहुधर्मी, बहुभाषी समाज मे छोटी छोटी बातों का उठना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है और यह बातें स्वत: खत्म भी हो जाती हैं लेकिन दुर्भाग्य यह है कि हमारे इलेक्ट्रानिक मीडिया का एक बडा हिस्सा ऐसी छोटी छोटी बातों पर पूरा मछ्ली बाजार का माहौल तैयार कर उसमें बारूद भरने का काम करने लगा है तुर्रा यह कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इस पर कोई अंकुश भी नही

अगर थोडा गंभीरता से सोचें तो इस तरह का राजनीतिक, सामाजिक परिवेश विकास की सीढियां चढते किसी भी देश के हित मे कतई नही होता लेकिन इसकी चिंता किसे है ? राष्ट्रहित नाम की चिडिया तो इस देश के हुक्मरानों की सोच से जाने कब फुर्र हो चुकी है अपने स्वार्थों के लिए आम आदमी के दिलो-दिमाग मे भी किस्म किस्म के जहर घोलने का काम बदस्तूर जारी है यह सिलसिला कब टूटेगा, पता नही


बुधवार, 21 अक्तूबर 2015

राजनीति तुझ पर ही क्यों लिखूं

(एल.एस. बिष्ट ) - राजनीति ने लील लिये आसमां कैसे कैसे । संतों को शैतान और शैतानों को नरपिशाच बना दिया । क्रांति की मसाल लिए हाथों को सत्ता का चाटुकार बना दिया । न जाने कितने खूबसूरत सपनों को अकाल मौतों का फरमान सुना दिया । फूलों के उपवनों को शमशान मे बदल दिया और तो छोडिये जनाब इंसान को हैवान बना कर भाई को भाई का दुश्मन बना दिया । इसलिए आज ऐसी राजनीति पर कोई पोस्ट नही ।
आज सिर्फ प्यार की बातें और उसकी मीठी यादें । आदिम युग से चले आ रहे उस प्यार की जिसने जिंदगी को जिंदगी मे ढाला । जिसका नशा जब भी जिस पर  चढा वह दुनिया को भूला और उस भूलभूल्लैया मे भी प्यार को न भूला ।
लिखना ही है तो पहले प्यार की उस पहली चिट्ठी पर लिखूं  जो कभी भुलाये नही भूलती । उस स्नेहिल स्पर्श पर कुछ लिखूं जिसकी छुअन का एहसास बरसों बरस बाद भी ताजे फूलों की खुशबू सी लगे ।
प्यार पर न सही तो उदासियों पर कुछ लिखूं.....कुछ आंसूओं पर...जिनमें दर्द का समंदर है । सरसराती हवाओं मे जिंदगी के गीत को सुनूं और दरिया के बहते हुए पानी के मानिंद जिंदगी की तासीर पर कुछ लिखूं । लहरों की चंचलता मे छिपे जिंदगी के उत्साह के संदेश को पढूं । कुछ उन बिखरते रिश्तों के दर्द पर लिखूं जिन्हें बद्लते जमाने की बदली हवा ने डस लिया । दिल से जुडे उन कोमलतम जज्बातों पर भी जिन्हें न जाने किसकी नजर लग गई ।
कुछ स्याही उन बिखरे सपनों के काफिले के लिए भी जो जिंदगी के सफर मे कहीं पीछे छूट चले  । भीड से अलग  बिसरते उन चेहरों पर कुछ लिखूं जिनकी यादें जिंदगी का संबल बनीं । लिखने के लिए जब भरा पूरा आकाश हो तो फिर स्याही, कालिख और चेहरे पर ही क्यों लिखूं ? इसलिए राजनीति आज तेरे भदेस चेहरे पर दो शब्द भी नही । बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक विजयदशमी की पूर्वसंध्या पर तेरे बदरंग होते चेहरे की शिकस्त की कामना के साथ ........मेरे सभी मित्रों को हार्दिक शुभकामनाएं 

मंगलवार, 13 अक्तूबर 2015

विरोध का यह कैसा चरित्र है

( एल.एस. बिष्ट ) -दादरी घटना से उपजे विरोध व समर्थन का जो सिलसिला शुरू हुआ वह थमने का नाम ही नही ले रहा । गौरतलब यह भी है कि जिस गांव मे यह घटना हुई उसने भाई-चारे की एक नई मिसाल कायम की है । इतना सबकुछ होने के बाद भी उस गांव के ही एक मुस्लिम परिवार की दो बेटियों की शादी मे गांव के हिंदुओं ने अभूतपूर्व सहयोग किया और एकबारगी लगा कि मानो कुछ हुआ ही नही । लेकिन अपने को समाज मे बुध्दिजीवी कहलाने वाले इस बुझती आग मे घी डालने का काम कर रहे हैं । साहित्यकार नयनतारा सहगल ने  पुरस्कार लौटाने की जो शुरूआत की उसमें नित नये नाम जुडने लगे हैं । अब तो भेड चाल के रूप मे एक होड सी लगती दिखाई दे रही है ।

विरोध स्वरूप पुरस्कार लौटाने की घोषणा करने वालों मे कई नाम सामने आए हैं । इनमे मुख्य रूप से कश्मीरी लेखक गुलाम नबी खयाल, कन्नड साहित्यकार श्रीनाथ, जी.एन.रंगनाथ राव, हिंदी कवि मंगलेश डबराल , राजेश जोशी व कुछ पंजाबी साहित्यकार भी शामिल हैं ।
इनका साहित्यकारों का मानना है कि मोदी सरकार के राज मे लोकतांत्रिक मूल्य संकट मे पड गये हैं  तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी खतरा मंडराने लगा है । इनका यहां तक मानना है कि मोदी सरकार पूरी तरह तानाशाही के अंदाज मे देश को चलाना चाहती है । यही नही, दक्षिण के चर्चित साहित्यकारों की हत्या के लिए भी यह मोदी सरकार को ही जिम्मेदार मान रहे हैं । यानी एक तरह से इन्हें देश का धर्म निरपेक्ष व लोकतांत्रिक चरित्र पूरी तरह से खतरे मे दिखाई देने लगा है
  यहां गौरतलब यह भी है कि इसके पूर्व भी ऐसी घटनाएं देश मे होती रही हैं लेकिन तब शायद इन्हें कहीं से भी लोकतंत्र खतरे मे पडता नजर नही आया । आज यकायक इन्हें दादरी घटना के बाद आसमान सर पर टूटता नजर आने लगा है । अपने गुस्से की अभिव्यक्ति के रूप मे यह उन साहित्यिक पुरस्कारों को सरकार को वापस करने की घोषणा कर रहे हैं जिनका सीधे तौर पर सरकार से कोई लेना देना भी नही है । साहित्य अकादमी एक स्वायत्त संस्था है । इन्हें यह भी स्मरण नही कि यह पुरस्कार  इन्हें साहित्यिक सेवाओं अथवा कृतियों पर दिया गया है जिसके वह हकदार हैं । राजनीतिक कारणों से इन्हें वापस करना कहीं से भी तर्कसंगत नही लगता ।
यही नही, इनका विरोध भी एक पक्षीय दिखाई देता है । यह उन लोगों मे कोई बुराई नही देख रहे जो गोमांस खाने को लेकर बढ चढ कर बोल रहे हैं व गोमांस परोसने की दावतों को, दूसरों को चिढाते हुए आयोजित कर रहे हैं । यही नही, इन्हें उन लोगों मे भी कोई बुराई नजर नही दिखाई देती जो ऋषि मुनियों के मुंह मे भी गोमांस डालने मे पीछे नही । ऐसे मे इनके विरोध को क्या समझा जाए ? प्रचार पाने का तरीका या फिर अपने को बौध्दिक व सेक्यूलर दिखाने की होड ।

अब बात जब विरोध की है तो भला यहीं तक सीमित कैसे रह सकती है ? शिव सैनिकों के विरोध के चलते पाकिस्तानी गजल गायक गुलाम अली के कार्यक्रम को रद्द करना पडा । यह वही गुलाम अली हैं जिनके भारत मे भी लाखों दीवाने हैं । अब यहां पर भी यह विरोध अतिवाद का शिकार होता दिखाई दिया । राजनीतिक दुश्मनी और कलाकारों की दुनिया के बीच फर्क को न समझ कर विरोध करना यहां भी तर्कसंगत नही लगता । कहीं अच्छा होता कि शिवसैनिक इस अंतर को समझ उनके कार्यक्रम का विरोध न करते । बहरहाल, मुंबई मे  उनके गजलों का जादू पिटारे मे ही बंद होकर रह गया ।
\ विरोध की यह आंधी यहीं तक सीमित न रह सकी । इसने जल्द ही एक ऐसी घटना को जन्म दिया जो देखते देखते अंतरराष्ट्रीय खबर बन गई । शिवसैनिकों ने एक और विरोध अपने नाम दर्ज कराते हुए आब्जर्बर रिसर्च फाउंडेशन के चेयरमैन सुधींद्र कुलकर्णी के मुंह मे कालिख पोत दी । दर-असल कुलकर्णी की संस्था ने पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री खुर्शीद महमूद कसूरी की किताब के विमोचन का आयोजन किया था । यह बात शिवसैनिकों को नागवार गुजरी और उन्होने उनके चेहरे मे काला रंग पोत कर अपना विरोध दर्ज किया । यह दीगर बात है कि बाद मे विमोचन कार्यक्रम संभव हो सका
यहां भी देखा जाए तो इस तरह के विरोध की जरूरत नही थी । इसका लाभ तो उनकी पुस्तक को ही मिला और जाने अनजाने पूरी दुनिया के मीडिया मे भी छा गये । दर-असल इस तरह के विरोध राजनीतिक कारणों से ही किये जाते हैं लेकिन कई बार इन विरोधों का चरित्र तर्कसंगत नही लगता । दादरी घटना को लेकर साहित्यकारों का विरोध तरीका हो या फिर मुंबई मे शिवसैनिकों के विरोध का मनोविग़्य़ान समझ से परे है । सच यह भी है कि ऐसे विरोध व्यवस्था मे बदलाव लाने मे असफल ही सिध्द हुए हैं । इन पर सोचा जाना जरूरी है । 

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2015

सात समंदर पार से .............



(एल.एस. बिष्ट ) - बीते दौर का एक लोकप्रिय फिल्मी गीत है " सात समंदर पार से, गुडियों के बाजार से, एक अच्छी सी गुडिया ले आना, पापा जल्दी आ जाना ..." । इस गीत मे विदेश गमन के आकर्षण को बहुत ही खूबसूरत तरीके से अभिव्यक्त किया गया है । बेशक यह उस दौर का गीत रहा हो जब सात समंदर पार जाना किसी के लिए भी इतना आसान नही था । लेकिन आज भी विदेशी धरती के लिए आकर्षण जस का तस बरकरार है । शायद ही कोई ऐसा हो जो विदेश का नाम सुन कर खुशी से फुला न समाये । यह दीगर बात है कि आज भी विदेश जाने का अवसर सभी को नही मिल पाता । लेकिन यह भी सच है कि आर्थिक प्रगति के तमाम दावों के बाबजूद भारत से विदेश जाने का सिलसिला कहीं से कम नही हुआ है ।
देश मे पूंजी निवेश को बढावा देने तथा व्यापार जगत को कई प्रकार की सुविधाएं तथा सकारात्मक कार्य संस्कृति देने के तमाम वादों के बाबजूद एक आम भारतीय मे विदेश मे बसने की लालसा हिलोरे मारती है ।
जनवरी 2015 तक आंकडों को देखें तो विदेशों मे कुल भारतीयों की संख्या तीन करोड के आसपास है जिसमे पोने दो करोड ऐसे हैं जिन्हें उस देश की नागरिकता मिल चुकी है जहां वह रह रहे हैं । देखा जाए तो विदेशों मे बसे भारतीयों की यह बडी संख्या है । कुछ देशों मे तो भारतीयों की संख्या इतनी अधिक है कि वहां एक लघु भारत के दर्शन होते हैं । अकेले अमरीका मे 45 लाख भारतीय हैं । इनमे से लगभग 32 लाख भारतीयों को अमरीकी नागरिकता मिल चुकी है । ग्रेट ब्रिटेन मे भी 18 लाख से ज्यादा भारतीय हैं । यूरोपीय देशों के अलावा भारतीयों की अच्छी खासी संख्या खाडी देशों मे भी है ।
वैसे तो अधिकांश भारतीय विदेशों मे अच्छी नौकरी व सुविधाओं के लिए ही जाना पसंद करते हैं जो वहां उन्हें आसानी से मिल जाती है । आर्थिक कारणों से जाने वाले भारतीयों के अलावा एक बडी संख्या उन अमीरों की भी है जो अन्य कारणों से विदेश जाना पसंद करते हैं । इसके लिए मुख्य रूप से टैक्स प्रणाली व भारत की व्यापार कार्य संस्कृति जिम्मेदार है ।
अभी हाल मे एक ग्लोबल रिपोर्ट मे बताया गया कि पिछ्ले 14 वर्षों 61000अमीर भारतीयों ने देश की बजाए विदेश जाना अधिक पसंद किया । भारत से ज्यादा संख्या सिर्फ पडोसी चीन की है । इसका सीधा सा तात्पर्य यह भी है कि इन्हें भारत मे व्यापार व पूंजी निवेश के लिए प्रर्याप्त अनुकूल परिवेश नही दिखाई दे रहा । इस द्र्ष्टि से देखा जाए तो सरकार सही दिशा की ओर बढ रही है तथा देश मे व्यापार की संभावनाओं को बढाने के लिए तमाम उपाय भी तलाश रही है ।
वैसे तो भारत से विदेश जाने के पीछे अभी तक मुख्यत: आर्थिक कारण ही रहे हैं । वहां रोजगार व अच्छे वेतन की संभावनाओं को देखते हुए एक आम भारतीय विदेश जाना व वहीं रह जाना पसंद करता रहा है । लेकिन इधर कुछ स्मय से उच्च शिक्षा के लिए भी बडी संख्या मे भारतीय छात्र विदेश जा रहे हैं । एक अनुमान के अनुसार हर साल लगभग डेढ लाख भारतीय छात्र विदेश मे पढाई के लिए फार्म भरते हैं । इसमे अकेले अमरीका मे हर साल 25 हजार छात्र पढने जाते हैं । अमरीका के बाद आष्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, कनाडा आदि देशों मे भी भारतीय छात्र उच्च शिक्षा के लिए जाना पसंद करते हैं । दर-असल इसका एक बडा कारण यह है कि भारत मे तकनीकी व प्रबंधन के अच्छे गुणवत्ता के कालेज नही है ।
नेशनल सेंटर फार साइंस एंड इंजीनियरिंग स्टैटिष्टिकस  के जारी आंकडों के अनुसार एशिया से अमरीका जाने वाले प्रवासी वैग़्य़ानिकों और इंजीनियरों मे सबसे बडी संख्या भारतीयों की है । रिपोर्ट के अनुसार अमरीका के 29.60 लाख एशियाई वैज्ञानिकों व इंजीनियरों मे 9.50 लाख भारतीय हैं । यही नही, रिपोर्ट बताती है कि 2003 की तुलना मे 2013 मे भारत से आने वाले वैज्ञानिकों व इंजीनियरों की संख्या मे 85 फीसदी का इजाफा हुआ है ।
यह चौंकाने वाले आंकडे हैं और देश के हित मे एक गंभीर चिंता का विषय भी ।दर-असल औसत स्तर के रोजी-रोजगार के लिए विदेशों को पलायन करना एक आम बात है लेकिन जब किसी देश से अमीर व्यापारी व उसकी युवा प्रतिभाएं विदेशों का ही रूख करने लगे तो इस पर सोचा जाना चाहिए । आज यही हो रहा है । उच्च शिक्षा के बाद हमारे युवा वहीं रहने व बसने को पसंद करने लगे हैं । अमरीका, ग्रेट ब्रिटेन, कनाडा व आष्ट्रेलिया जैसे देशों मे युवा वैज्ञानिकों व इंजीनियरों की संख्या तेजी से बढ रही है ।
अगर यही हालात रहे तो भारत को आने वाले समय मे इस नई समस्या से भी जूझना होगा । इसलिए जरूरी है कि देश की प्रतिभाएं देश मे रह कर विकास मे अपनी भागीदारी निभाएं तथा एक नये भारत के निमार्ण मे अपने ग़्य़ान क उपयोग करें ।ऐसा हो सके इसके लिए सरकार को सोचना होगा तथा विदेशों की तरफ हो रहे इस पलायन को रोकने के हर संभव प्रयास करने होंगे । 

सोमवार, 5 अक्तूबर 2015

बडी त्रासदी की छोटी खबरें


( एल.एस. बिष्ट ) - दूरदर्शन के विभिन्न चैनलों व अखबारों के माध्यम से जनता तक पहुंचने वाली तमाम खबरों के सैलाब पर जरा  गौर करें तो एक विलक्षण पहलू सामने आता है | कई बार बडी व महत्वपूर्ण कही जाने वाली खबरें प्रसारित व प्रकाशित होने के बाद उतनी बडी व महत्वपूर्ण नही लगतीं जितनी प्रचारित की जा रही थीं | बहुधा ‘ ब्रेकिंग न्यूज ‘ के नाम पर चित्कार करने वाली खबरें जब पूरे विस्तार से सामने आती हैं तो अक्सर छोटी और मामूली होने का एहसास देती हैं | वहीं दूसरी तरफ़ कुछ ऐसी भी खबरें होती हैं जिन पर इलेक्ट्रानिक मीडिया मे तो चर्चा तक नही होती | अलबत्ता  अखबारों के किसी कोने मे जरूर अपनी जगह बना लेती हैं | यही छोटी खबरें बडी होने के बाबजूद उपेक्षा का शिकार होकर रह जाती हैं | जबकि इन्हीं खबरों के अंदर हमारे समाज की सही तस्वीर छुपी होती है |
     अभी हाल मे, गांधी जयंती के दिन एक ऐसी ही खबर अखबार के एक कोने से झांकती नजर आई | दिल दहला देने वाली यह खबर उत्तर प्र्देश के हाथरस से जुडी थी | यहां दुष्कर्म पीडिता सहित उसके पूरे परिवार ने असमय ही मौत को स्वेच्छा से गले लगा दिया |
     खबर के अनुसार एक तीस वर्षीय महिला रितु अग्रवाल ने कुछ सप्ताह पहले एक व्यक्ति पर यौन शोषण का मुकदमा दर्ज कराया था | लेकिन तमाम प्रयासों के बाबजूद आरोपी खुले आम घूमता रहा | इस बीच समाज के तानों से तंग आकर उसके पति ने आत्महत्या कर ली | 28 सिंतबर को तेरहवीं के दिन नाते-रिश्तेदारों ने भी महिला को कोसते हुए उसे उसके पति की आत्महत्या के लिए जिम्मेदार ठहराया | एक तरफ़ आरोपी का खुले आम घुमना और दूसरी तरफ़ समाज के ताने | अंतत: उसने अपने सात वर्षीय बेटे व ग्यारह वर्षीय बेटी को अपने सीने से चिपका कर और फ़िर मिट्टी का तेल डाल कर आग लगा दी | इस तरह पूरा परिवार ही खत्म हो गया |
     इस तरह की यह कोई पहली घटना भी नही है | अक्सर अखबारों के किसी कोने मे इस तरह की घटनाएं छ्पती रहती हैं | दुष्कर्म हादसे का शिकार हुई तमाम युवतियों ने सामाजिक तानों से तंग आकर आत्मग्लानी मे इसी तरह मृत्यु को गले लगाया | कभी कधार किन्हीं कारणों से दो-एक घटनाएं चर्चा मे आ जाती हैं अन्यथा बिना शोर शराबे के यह घटनाएं समय के साथ भुला दी जाती हैं | जिन कारणों से यह युवतियां मृत्यु को गले लगाती हैं वह कारण वैसे ही बने रहते हैं  और कोई दूसरी दुष्कर्म पीडिता उसका शिकार बनती है | यह सिलसिला चलता रहता है |
     दर-असल महिला सशक्तिकरण के नारों और पाखंडपूर्ण व्यवहार से अलग हट कर देखें तो इन घटनाओं के लिए दो ही कारक जिम्मेदार हैं | पहला हमारी कानून व्यवस्था जिसमे पुलिसिया कार्य शैली भी शामिल है और दूसरा स्वंय समाज | कानून अपना काम करता नही | वह अपराधी का सगा बनने मे अपने को ज्यादा सुविधाजनक स्थिति मे समझता है और समाज कुछ दिनों की झूठी सहानुभूति दिखाने के बाद ऐसा व्यवहार करने लगता है मानो अपराधी बलात्कारी नही बल्कि पीडिता स्वंय हो |
     यही नही, यह समाज ही पीडिता को तानों के दंश से रोज-ब-रोज आहत करने मे भी पीछे हटता नही | यह स्थितियां उसे और उसके परिवार को अवसाद के ऐसे गहरे अंधेरे मे धकेल देती हैं जहां उसके अंदर अपनी ही जीवनलीला समाप्त करने का विचार पनपने लगता है और किन्हीं कमजोर क्षणों मे अक्सर वह ऐसा कर बैठती है और कभी कभी तो पूरा परिवार ही |
     यहां लाख टके का सवाल यह है कि समाज का यह कैसा व्यवहार है जो ऐसे हादसों के शिकार परिवारों के लिए दवा नही बल्कि दर्द का काम करता है | एक तरफ़ वह अपने दुख की अभिव्यक्ति के प्रतीक स्वरूप मोमबत्तियां जला कर जुलूस निकालता है और वहीं कुछ समय अंतराल पर उनका अपने ही गांव-मुहल्ले मे रहना दूभर कर देता है | समाज के इस विकृत और विचित्र व्यवहार पर सोचा जाना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि आए दिन नारों, और जुलूसों के रूप मे वह अपने विरोध को दर्ज करने मे कहीं भी पीछे नही दिख रहा | आखिर यह कैसा विरोधाभास है ? इस सवाल का उत्तर समाज के हित के लिए  समाज को ही देना है | इसके बिना इस समस्या की तह तक पहुंच पाना संभव नही |

     

मंगलवार, 15 सितंबर 2015

गैर जरूरी मुद्दों मे उलझी राजनीति


( एल. एस. बिष्ट ) -आजादी के बाद हमारे संविधान निर्माताओं ने देश के लिए जिस लोकतांत्रिक प्रणाली को अनुकूल माना उसमें उम्मीद की गई थी कि समय के साथ हमारा यह लोकतंत्र राजंनीतिक रूप से परिपक्व होता जायेगा । देश अपने सभी नीतिगत फैसले व अपनी समस्त राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक समस्याओं को संविधान के दायरे मे रह कर ही हल करेगा । इस तरह परिपक्व होता लोकतंत्र विकास की राह पर अग्रसर रहेगा । लेकिन आज इस राजनीतिक प्रणाली के तहत देश की जो दशा और दिशा है उसने कई गंभीर सवाल खडे कर दिये हैं । कहां तो उम्मीद की गई थी  एक परिपक्व राजनीतिक परिवेश की और आज कहां सतही और गैरजरूरी मुद्दों तक सीमित रह गया है राजनीतिक चिंतन व सरोकार ।

इधर कुछ समय से संसद के अंदर और बाहर जिन मुद्दों पर बहस की जा रही है वह न सिर्फ गैर जरूरी हैं बल्कि अहितकारी भी हैं । इन अनावश्यक मुद्दों पर बहस को केन्द्रित करने का ही परिणाम है कि देश के विकास के लिए नीतिगत फैसले कहीं हाशिए पर आ गये हैं । चाहे-अनचाहे इनकी उपेक्षा हो रही है । ऐसा सिर्फ संसद के बाहर या मीडिया वाक युध्द मे ही नही हो रहा बल्कि संसद के अंदर भी यही गैरजरूरी मुद्दे छाये हुए हैं । गौर करें तो पूरे मानसून सत्र  की बलि या तो राजनीतिक हठ धर्मिता के कारण चढी  या फिर अनावश्यक मुद्दों पर बहस के कारण ।
इधर फिर एक और मुद्दा चर्चा का विषय बना । महाराष्ट्र सरकार ने जैन समुदाय की धार्मिक भावनाओं को देखते हुए कुछ विशेष दिनों के लिए मांस की बिक्री पर प्रतिबंध क्या लगाया कि मानो आसमान सर पर गिर गया । राजस्थान सरकार ने भी इसी  तर्ज पर जैन समुदाय के पर्युषण पर्व के अवसर पर मांस बिक्री पर रोक के आदेश पारित किये । इसके विरूध्द शिवसेना ने सडकों पर आकर विरोध दर्ज कराया । यही नही, इसके चलते जैन समुदाय के लिए ऐसा कुछ भी कहा गया जिसे अच्छा तो नही कहा जा सकता ।
मांस प्रतिबंध को लेकर की गई कुछ राजनीतिक दलों की यह घटिया राजनीति एक अकेला उदाहरण नही है । इसके पूर्व भी तमाम ऐसे मुद्दों पर माहौल गर्म रहा है जिनका देश के विकास से दूर दूर तक कोई रिश्ता ही नही था । अधिकांश ऐसे मामलों ने सामाजिक सौहार्द बिगाडने मे ही अपनी भूमिका निभाई । आज स्थिति यह है कि किसी सामाजिक मुद्दे पर सही संदर्भ व परिप्रेक्ष्य मे भी चर्चा की जाए तो जल्द ही उसका मूल चरित्र बिगाड कर तिल का ताड बनाने मे कोई विलंब नही होगा । ऐसी सोच ने कमोवेश प्र्त्येक राजनीतिक दल को अपनी गिरफ्त मे ले लिया है ।
आश्चर्य तो तब होता है जब कई बार गांव-कस्बे स्तर के मुद्दे भी राष्ट्रीय बन जाते हैं । उनमें उलझ कर हमारे राजनेता संसद का कीमती वक्त बर्बाद करते हैं । दुखद तो यह है कि यह प्रवत्ति कम होने की बजाए बढती जा रही है । हमारे न्यूज चैनलों की गैरजिम्मेदार पत्रकारिता आग मे घी का काम कर रही है ।
इस प्रवत्ति का ही परिणाम है कि जिन मुद्दों व समस्याओं पर चर्चा व हंगामा किया जाना चाहिए वह कहीं किनारे हाशिए पर उपेक्षित पडे रहते हैं । अभी हाल मे दिल्ली मे एक् दपंति ने इसलिए आत्महत्या कर ली कि उनका बच्चा जो डेंगू से पीडित था समय पर  इलाज न मिलने के कारण असमय काल का ग्रास बना । वह उस सदमे को न सहन कर सके तथा उन्होनें अपनी भी जीवन लीला समाप्त कर दी । इस दर्दनाक हादसे ने दिल्ली के निजी अस्पतालों के जिस अमानवीय चेहरे को उजागर किया है बहस और हंगामा उस पर किया जाना चाहिए । इस तरह की यह पहली घटना नही है । इसके कुछ ही दिन पूर्व दिल्ली के ही एक निजी अस्पताल ने परिजनों को एक शव  इसलिए देने से इंकार कर दिया था कि भारी भरकम बिल के एक छोटे से हिस्से का भुगतान परिजन करने मे असमर्थ थे ।
इसी तरह शहरों व महानगरों मे बुजुर्गों की जिस तरह सरेआम हत्या कर लूट पाट की जा रही हैं, बहस-चर्चा व हंगामा इस मुद्दे पर किया जाना चाहिए । लेकिन शायद ही कोई राजनीतिक दल इस पर शोर मचाता हो । यही नही जिस तरह बच्चों के अपहरण की घटनाएं बढ रही हैं तथा फिरौती के कारण उनकी ह्त्यायें की जा रही हैं , इस पर भी संसद के अंदर बहस की जानी चाहिए । आम आदमी की गाढी कमाई को जिस तरह से किस्म किस्म के हथकंडों से ठगा जा रहा है यह भी चर्चा का विषय बनना चाहिए । मुद्दे तो अनेक हैं लेकिन उन पर शायद राजनीति की रोटी नही सेकी जा सकती इसलिए खामोशी की एक चादर पडी रहती है । जरूरत है ऐसे  मुद्दों पर मुखर होने की , सडक से लेकर ससंद तक । वोट बैंक और सुविधा की राजनीति के मोह से मुक्त हो ऐसी सोच कब विकसित होगी , पता नही । लेकिन होनी चाहिए । 

बुधवार, 9 सितंबर 2015

प्यार पर यह कैसा विवाद

कुछ वर्ष पूर्व एक फिल्म आई थी " नि:शब्द " । अमिताभ बच्चन और नई तारिका जो दुर्भाग्य से अब इस दुनिया मे नही है यानी जिया खान की अदाकारी से ज्यादा इस फिल्म की कथावस्तु चर्चित व विवादास्पद रही थी । दर-असल इस फिल्म मे एक उम्रदराज व्यक्ति (अमिताभ) का अपनी बेटी की सोलह वर्षीय  सहेली(जिया खान) के प्रति आकर्षण को बडी खूबसूरती से परदे पर फिल्माया गया था । इस फिल्म का विवादास्पद व विरोध का विषय बनना स्वाभाविक ही था । क्योंकि जिंदगी के जिस पहलू को छुआ गया था उस पर रूढिवादी सोच की मोटी चादर डालना ही बेहतर व सुविधाजनक समझा जाता रहा है ।
                    इधर दिग्विजय सिंह व अमृता राय ने असल जिंदगी मे उन मानवीय भावनाओं को सतह पर ला खडा किया है जिन पर रूढिवादी सोच की  मोटी चादर हटा कर अभी गहंनता व पूरी संवेदनशीलता से सोचा जाना बाकी  है । ऐसे मे 68 वर्ष के उम्रदराज किसी व्यक्ति का 44 वर्षीय किसी युवती से प्यार करना व फिर विवाह बंधन मे बंधना सवाल तो उठायेगा ही । दर-असल यह इंसानी जिंदगी का एक ऐसा संवेदनशील पहलू है कि प्यार, कसमें-वादे, बरखा-सावन जैसे  शब्दों पर स्याही उडेलने वाले तमाम कवि व शायर भी आंखें तरेरते देखाई देते हैं । प्यार को उसके कई कई रूपों मे परदे पर फिल्माने वाले फिल्मकार भी असल जिंदगी मे " मोहब्बत जिंदाबाद " कहने मे सकुचाते दिख रहे हैं । यही नही, किसी अदालत मे लव मेरिज कराने वाले मजिस्ट्रेट और द्स्तावेजों पर लव मैरिज की मुहर लगाने वाले भी सहजता से इस प्यार पर भी अप्नी मुहर लगा सकेंगे, कहना मुश्किल है । यानी सदियों से प्यार का दुश्मन समझे जानी वाली निष्ठुर दुनिया यहां भी पसीजती नजर नही आ रही ।
                  दर-असल प्यार व काम भावना को हमने उम्र की सीमाओं मे बांध दिया है। जब कभी इन सीमाओं का उल्लघंन होता दिखाई देता है तो हम असहज हो जाते हैं । अपने आप से पूछ्ने लगते हैं ' ऐसा कैसे हो सकता है ' ? । जबकि वास्तविक सच यह है कि प्यार व काम भावना किसी उम्र की मोहताज नही होती । थोपे गये बंधन व आदर्श इन्हें अनचाहे ही कैदी बना देते हैं । जब कभी कोई प्रेमी इनमे विद्रोह के स्वर भर देता है तो समाज की बनाई गई जेल की दीवारों पर दरकने की आवाज सुनाई देने लगती है और समाज अपनी जेल बचाने के लिए विरोध के स्वर ऊंचा कर देता है ।
                      दिग्गि राजा व अमृता की प्रेमकथा इसी विद्रोह का प्रतीक है । वैसे भी देखा जाए तो इन प्रेमियों ने प्यार को उसके सही अर्थों मे परिभाषित ही किया है कि प्यार उम्र का मोहताज नही होता । वैसे भी सच तो यह है कि प्यार की दुनिया है ही ऐसी कि कुछ चीजें कभी समझ मे नही आतीं । अगर हम इस प्यार को 68 और 44 के आंकडे से बाहर निकल कर देखें तो शायद यहां भी प्यार के वही रंग दिखेंगे जो सदियों से इंसान को सम्मोहित करते आये हैं और जिन पर दिमाग नही दिल की हुकूमत चलती है । वही प्यार तो है जिसकी तरंगों ने दुनिया के न जाने कितने देशों का इतिहास ही नही भूगोल भी बद्ल दिया । वही प्यार जिसमे राजा रंक भी हुए हैं और किसी रूपवती ने किसी रंक को अपने दिल मे बसाने मे कोई संकोच भी नही किया ।प्यार की इस दुनिया मे अपने प्यार को पाने के लिए जान लेने वालों का भी इतिहास है और अपने प्यार के लिए जान गवाने वालों का भी । इसलिए प्यार की इस तिलिस्मी, खूबसूरत दुनिया मे गुड लक दिग्गि राजा-अमृता । 

सोमवार, 31 अगस्त 2015

दरकते रिश्तों की त्रासदी

( एल.एस. बिष्ट ) - मुबंई के बहुचर्चित शीना बोरा हत्याकांड ने आज सभ्यता के ऊंचे पायदान पर खडे हमारे समाज को सोचने पर मजबूर कर दिया । दर-असल अपराध के नजरिये से देखें तो इसमें ऐसा कुछ भी नही जिसे देख या सुन कर कोई हैरत मे पड जाए या जो कल्पना से परे लगे । यह ह्त्याकांड इसलिए भी खास नही कि इस कहानी की नायिका यानी इंद्राणी मुखर्जी ने कपडों की तरह अपने पति बदले। न ही इसलिए कि इस ह्त्या कथा का जाल एक औरत के दवारा बुना गया जिसे भारतीय समाज मे अबला समझा जाता रहा है । दर-असल इस घृणित हत्या कथा ने हमारे समाज के उस चेहरे को उजागर किया है जिससे हम मुंह चुराते आए हैं । ग्लैमर की चकाचौंध के पीछे भी अंधेरे की एक दुनिया आबाद रह सकती है, इस सच से हम रू---रू हुए ।
इंसानी जिंदगी के चटक़ और भदेस रंगों को समेटे यह ह्त्याकथा हमे उस दुनिया मे ले जाती है जहां सतह पर ठहाकों की गूंज सुनाई देती है और थोडा अंदर जाने पर सिसकियों और बेबसी का ऐसा क्र्दंन कि सहज विश्वास ही न हो । दर-असल विश्वास न होने के भी अपने कारण हैं । भला एक रंगीन, चहकती और खुशियों मे मदहोस दुनिया के अंदर की परतों मे इस कदर उदासी और अवसाद का दमघोंटू अंधेरा होगा, भला कैसे सोचा जा सकता है । लेकिन यह भी एक सच है, इसे इंद्राणी और शीना की इस पेचीदी कहानी ने पूरी शिद्दत से सामने रखा है ।
देखा जाए तो यह कहानी सिर्फ शीना बोरा की हत्या की कहानी नही है बल्कि यह कहानी है इंसानी महत्वाकांक्षाओं, सपनों और उडानों की । एक ऐसी लडकी की कहानी जिसका स्वंय का बचपन एक् भयावह सपने से कम नही था । जिसे स्वंय घर की चाहरदीवारी के अंदर की ऐसी जिंदगी से गुजरना पडा जिस पर सात परदे डालने की ' दुनियादार प्रथा ' आज भी कायम है । उसे एक ऐसी जिंदगी जीने को अभिशप्त होना पडा जहां सिसकियां भी दम तोड देती हैं ।
लेकिन महत्वाकांक्षाओं के रथ पर सवार उस लडकी ने अपने लिए एक ऐसी दुनिया रच डाली जो उसकी उम्र की लडकियों के लिए दिवास्वप्न देखने जैसा ही है । लेकिन इंद्राणी के लिए यह एक हकीकत की दुनिया थी जहां उसने वह सबकुछ पाया जिसकी चाह उसे अपने किशोरवय उम्र के सपनों मे रही होगी
लेकिन सपनों सरीखी इस जिंदगी को जिन मूल्यों पर हासिल किया यही इस ह्त्याकांड का सबसे भयावह सच है । पति परमेश्वर की अवधारणा पर टिके समाज को जिस तरह वह ठेंगा दिखाती हुई , कपडों की तरह अपने लिए पति बदलती रही, इसने एक बडा सवाल हमारे सामाजिक मूल्यों पर उठाया है । यही नही, दया और ममता की जीती जागती मूर्ति समझे जाने वाली मां के किरदार मे जिन रंगों को भरा उसने सोचने के लिए मजबूर कर दिया कि आखिर हम किस दिशा की ओर बढने लगे हैं ।
दर-असल गौर करें तो इधर उपभोक्ता संस्कृर्‍ति ने एक ऐसे सामाजिक परिवेश को तैयार किया है जहां हमारे परंपरागत सामाजिक मूल्यों का तेजी से अवमूल्यन हुआ है । नैतिक-अनैतिक जैसे शब्द अपना महत्व खोने लगे हैं । महत्वाकांक्षाओं और सबकुछ पा लेने की होड मे अच्छे बुरे के भेद की लकीर न सिर्फ कमजोर बल्कि खत्म सी होती दिखाई देने लगी है । समाज के हर स्तर और पहलू पर यह गिरावट साफ तौर पर देखी जा सकती है ।
देश के किसी भी शहर के अखबार पर नजर डालें तो एहसास हो जाता है कि हम एक ऐसी बदलती दुनिया का हिस्सा बन चुके हैं जहां वासना और ख्वाहिशों की मिनारें रोज--रोज ऊंची होती जा रही हैं । पत्नी अपने प्रेमी के लिए और पति अपने ' सपनों की रानी ' के लिए उन हदों को भी लांघ सकता या सकती है, जिनके मजबूत बंधनों पर भारतीय समाज गर्व करता रहा है । ऐसी घटनाएं अब किसी अखबार की सुर्खियां भी नही बनतीं क्योंकि यह हर शहर गांव कस्बे का सच बनती दिखाई दे रही है ।
अभी हाल के वर्षों की कुछ घटनाओं पर नजर डालें तो वासना की आंधी मे गिरते हुए मूल्यों की हकीकत को समझा जा सकता है । यही नही, प्यार और कामवासना मे अपना विवेक खो देने वाली अमरोहा ( .प्र. ) की उस लडकी को लोग अभी भूले नही हैं जिसने प्रेमी के साथ मिल कर पूरे अपने परिवार की ही ह्त्या कर दी थी । अभी हाल मे लखनऊ शहर के मडियाव मे एक महिला ने छ्ह साल के एक मासूम की जान सिर्फ इसलिए ली कि वह अपने प्रेमी के साथ फिरौती से मिले पैसों से ऐश कर सके । वह महिला रिश्ते मे उस बच्चे की सगी चाची थी ।
इस तरह की घटनाएं किसी एक शहर या राज्य तक सीमित नही हैं । इनका चंहुमुखी विस्तार हुआ है । ऐसा भी नही कि यह वर्ग विशेष तक् सीमित हो बल्कि यह जहर हर वर्ग को अपनी चपेट मे ले चुका है । अगर एक तरफ शहरी मध्यम वर्ग के आकाश छूते सपने हैं तो दूसरी तरफ उच्चवर्ग मे ऐशो आराम की ग्लैमर भरी जिंदगी की ख्वाहिशें कम हिलोरें नही मारतीं । किसी को पावर की भूख है तो किसी को खूबसूरत जिस्मों की तो कोई सपनों सी जिंदगी जीने को आतुर दिखाई देता है । यानी कुल मिला कर जिंदगी जीने की वह पुरानी सामाजिक अवधारणाएं अब कहीं हाशिए पर आती नजर आ रही हैं ।
बात यहीं तक नही है । बल्कि इन्हें पाने की एक ऐसी होड भी जिसमे सबकुछ लुटा कर भी पाने का दुस्साहस दिखाई दे रहा है । इस तरह देखा जाए तो बात चाहे इंद्राणी मुखर्जी की महत्वाकांक्षा भरी जिंदगी की हो या फिर उन महत्वाकांक्षाओं की भेंट चढती शीना की जिंदगी की या फिर एक गुमनाम सी जिंदगी जीते मिखाइल या फिर मां बाप के अजीब रिश्तों की सजा भुगतने वाली विधि की , सभी को कहीं न कहीं बदले हुए उन मूल्यों ने ही डसा है जिनमे रिश्ते-नातों का कोई मूल्य नही रह जाता । भावनाएं महत्वाकांक्षाओं की बलि चढ जाती हैं ।

यह वह मूल्य हैं जो उपभोक्ता संस्कृति से उपजे हैं । और जिनका नशा सर चढ कर बोलता है और अंतत: उस मोड पर आकर खत्म हो जाता है जहां जिंदगी अपना अर्थ खो देती है । दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि इस अंधेरे का घेरा हमारी जिंदगी मे कसता ही जा रहा है । हम इससे मुक्त हो सकेंगे या नही, यही एक बडा सवाल है । 

गुरुवार, 27 अगस्त 2015

बैसाखियों की दरकार


( एल.एस. बिष्ट ) - यह कहीं अच्छा और सुखद होता अगर गुजरात मे यह आंदोलन आरक्षण पाने के लिए नही बल्कि आरक्षण खत्म करने के लिए किया जाता । लेकिन जब देश की नसों मे स्वार्थ का रक्त संचारित होने लगा हो तो ऐसी आशा करना दिवास्वप्न देखने जैसा हो जाता है । दरअसल इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि पिछ्ले कुछ दशकों से भारतीय समाज व्यापक हितों से हट कर संकीर्ण स्वार्थों की सोच का शिकार बन कर रह गया है । राजनीतिक परिद्रश्य को ही देखें तो यहां भी व्पापक हित की सोच सिरे से नदारत है ।महज अपने हित की राजनीति को ही राजनीति का उद्देश्य मान लिया गया है । गौर करें तो स्वार्थ की यह सोच राजनीति के गलियारों से होती हुई सामाजिक जीवन के हर पहलू मे समाहित हो गई है ।
गुजरात जिसने विकास के एक माडल के रूप मे अपनी पहचान बनाई और दूसरों के लिए भी समृर्‍ध्दि के नये मुहावरे गढे, रातों रात असंतोष की आग मे जलने लगा । आश्चर्य यह कि वह उस समुदाय के कोप का शिकार बना जिसकी राजनीति से लेकर आर्थिक व सामाजिक सभी क्षेत्रों मे एक महत्वपूर्ण भागीदारी रही है । पटेलों का यह समाज एक ताकतवर व समृर्‍ध्द समाज के रूप मे जाना जाता है । यही नही, गुजरात की क्षेत्रीय राजनीति भी इनके इर्द गिर्द ही घूमती दिखाई देती है। फिर ऐसा क्या हो गया कि यह समुदाय अपने आप को पिछ्डा समझने लगा है । नब्बे के दशक मे हुए आरक्षण विरोधी आंदोलन एक हिस्सा बने इस पटेल समुदाय को ही आरक्षण की बैसाखी क्यों रास आने लगी है ।
इतिहास मे थोडा पीछे जांए तो पता चलता है कि संविधान सभा मे शामिल सदस्यों के बीच इस आरक्षण व्यवस्था को लेकर मतभेद था । लेकिन दलित समाज व जन-जातियों की जो दयनीय सामाजिक-आर्थिक स्थिति उस दौर मे थी उसे देखते हुए इन जाति समुदायों के लिए संविधान मे 15 7.5 प्रतिशत के आरक्षण की व्यवस्था पर सहमति बन ही गई । लेकिन दस वर्ष उपरांत इसकी समीक्षा की जानी थी । बस यहीं से देश का दुर्भाग्य इससे जुड गया और वोट की राजनीति से जुड आरक्षण व्यवस्था ने स्थायी रूप ले लिया
भारतीय राजनीति दलित आरक्षण के इस प्रेत से अभी मुक्त हो भी न सकी थी कि संकीर्ण राजनीति ने कोढ पर खाज का काम कर दिया । कमंडल के प्रभाव को खत्म करने के उद्देश्य से वी.पी.सिंह सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करते हुए पिछ्डी जातियों को 27 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा कर दी । बस यहीं से शुरू हुई सरकारी सेवाओं मे आरक्षण पाने की चुहा दौड जो आज भी जारी है ।
उत्तर भारत ही नही, दक्षिण भारत मे भी राजनीतिक हितों को देखते हुए पिछ्डी जातियों का चयन किया जाने लगा । ऐसे मे उत्तर व दक्षिण मे कई ताकतवर जातियां राजनीतिक समीकरणों के चलते पिछ्डे वर्ग मे शामिल कर दी गईं । देखा देखी दूसरी जातियों ने भी इसके लिए संगठित होना शुरू किया ।
उत्तर भारत मे राजस्थान, हरियाणा व प. उत्तर प्रदेश के एक ताकतवर जाट समाज ने भी आरक्षण के लिए गुहार लगाना शुरू कर दिया है । जब कि कभी अपने को पिछ्डा कहे जाने पर इन्हें सख्त विरोध था । यही स्थिति पटेलों की भी रही है । लेकिन आज यह भी इस ठ्सक को किनारा कर पिछ्डा कहलाने की होड मे लग गये हैं । यह हिंसक आंदोलन इसी का प्रतिफल है ।
यह सबकुछ नही होता अगर समय रहते इस आरक्षण व्यवस्था को खत्म करने की पहल कर दी जाती । लेकिन वोट राजनीति के चलते ऐसा संभव न हो सका । बल्कि इसे वोट् कमाने का एक माध्यम बना दिया गया । आरक्षण को लेकर की गई स्वार्थपरक राजनीति ने देश के सामाजिक ताने बाने को ही छिन्न भिन्न कर दिया । गुजरात तो महज एक बानगी भर है ।
आसानी से सरकारी नौकरी मिल जाने के लोभ ने जातीय समुदायों को संगठित कर लडने का साहस दिया । जाट आंदोलन और अब गुजरात मे पटेल समुदाय की लडाई इसका उदाहरण है । यही नही, आरक्षण अब एक ऐसा मुद्दा बन गया है कि इस लालीपाप को दिखा कर कोई भी रातों रात नेता बन सकता है । हार्दिक पटेल उन्हीं नेताओं मे एक हैं ।
आरक्षण की इस बैसाखी को पाने के लिए अभी कई और जातीय समूह अपनी जमीन तलाश रहे हैं । समय रहते इस खतरे को न समझा गया तो इसका गंभीर परिणाम देश को भुगतना पड सकता है । इसलिए यह समय है कि राजनीतिक स्वार्थों को छोड कर आरक्षण को खत्म करने की पहल राजनीतिक स्तर पर की जानी चाहिए । वरना आरक्षण का यह दैत्य देश के भविष्य पर एक बडा सवाल बना रहेगा ।



मंगलवार, 28 जुलाई 2015

ऐसे तो खत्म न होगी आतंकी दहशत


( L. S. Bisht ) - इस बार गुरदासपुर । पांच नदियों का प्रदेश जिसने हिंसा का एक दौर देखा है, फिर दहल गया है । एक पीढी गुजर गई जिसने पंजाब के उस लहुलुहान चेहरे को देखा और दर्द की चीखें सुनीं । आज फिर चेहरे पर भय की रेखायें । इसलिए नही कि फिर हिंसा के दानवों ने हमारी चौखट पार की है, बल्कि इसलिए कि कहीं यह उस स्याह दौर की दस्तक तो नही जिसे भुलाये जाने की पुरजोर कोशिशें अब भी जारी हैं ।
सीमा पर गोलियों और बम की आवाजों से किसी को सिहरन नही होती ।लेकिन जब यही आवाजें घर के अंदर जहां हम अपने को सबसे ज्यादा सुरक्षित समझते हैं सुनाई देती हैं तो डरना स्वाभाविक ही है । तीन आतंकी आए और फिर हमे घाव दे गये । अब तो लगता है कि हम इन घावों के अभ्यस्त से होते जा रहे हैं । इन घावों से रिसते खून को येनकेन रोकने के लिए मानो हम दवा-पट्टी लेकर हमेशा तैयार बैठे हों ।
आतंकी घटनाओं मे अकाल मृत्यु के ग्रास बने अपने जवानों, अफसरों और नागरिकों को " शहीद " का दर्जा दे मानो फिर मौत की अगली दस्तक का इंतजार करने लगते हैं । रोज--रोज होने वाले यह धमाके और फिर दिल को चीर देने वाली चीखों को मानो हम अपनी नियति मान बैठे हैं । लगता है हर ऐसे हादसे के बाद लाशों को गिनने के लिए हम अभिशप्त हैं । एक सन्नाटा सा पसरा है । जहां किसी को कुछ सूझ नही रहा ।
दर-असल गौर से देखें तो पाकिस्तान प्रायोजित यह आतंकवाद हमारी मानसिक कमजोरी पर बार बार चोट कर हमे आहत कर रहा है । वह जांनता है कि अतीत की सैनिक असफलताएं अब इतिहास बन गई हैं । 1965 हो या फिर 1971 या करगिल युध्द पारंपरिक युध्द शैली मे उसे मुंह की खानी पडी है । आज के हालातों मे भी उसे शिकस्त दिवारों पर लिखी साफ दिखाई दे रही है । लेकिन एक परमाणु सम्पन देश होने का जो तमगा उसने लगा दिया है, इससे वह अपने को ऊंचाई पर खडा देख रहा है ।
बार बार भारत को घाव देने के बाबजूद भारतीय सेना ने सीमाओं की हद नही लांघी । इसे वह अपनी एक उपलब्धी समझने लगा है । यहां तक कि करगिल युध्द मे भी भारतीय सेनाएं अपनी ही जमीन पर खडी थीं । यह उसने स्वयं नंगी आंखों से देखा है ।
कहीं न कहीं परमाणु अस्त्रों को वह भारत की लाचारगी का कारण मानने लगा है । समय समय पर परमाणु युध्द की धमकी देने मे भी उसे कोई हिचकिचाहट नहीं । भारतीय पक्ष को देखें तो शायद लाचारगी का यही कारण समझ मे भी आता है । अन्यथा दुनिया की एक बेहतरीन विशाल सेना वाले देश का नित घाव खाना और आहत होना समझ से परे है ।
इसमे अब कोई संदे ह नही कि भारत को अगर इस प्रायोजित आतंकवाद को रोकना है तो पडोसी की इस धमकी से पार पाना ही होगा । ऐसा भी नही कि युध्द रण्नीतियों की किताबों मे इसका कोई जवाब ही न हो । महाभारतकालीन चक्र्व्यूह जिसे एक अजेय व्यूह रचना समझा जाता रहा उसको भी भेदने की कला अर्जुन को मालूम थी । इसी तरह आधुनिक युध्द कौशल मे भी ऐसा संभव है कि परमाणु शस्त्रों का जखीरा सिर्फ देखने की चीज बन कर रह जाए और उसका उपयोग ही संभव न हो सके । आक्रामक युध्द शैली अनेक संभावनाओं के रास्ते खोलती है । वैसे भी गांधी के पदचिन्हों पर चलने वाले इस देश को अब यह समझ लेना चाहिए कि कभी चीन के राष्ट्र्पति माउत--तुंग ने यूं ही नही कहा था कि " पीस क्म्स फ्रोम बैरल आफ गन " यानी शांति बदूंक की नाल से आती है । आज वह देश न सिर्फ समृध्दि के ऊंचे पायदान पर खडा है बल्कि दुनिया की एक ताकत भी है ।


बहरहाल अब समय आ गया है कि आतंक की इस दहशत से मुक्ति के लिए नितांत नई संभावनाओं पर विचार करें । अन्यथा इसका काला साया पूरे देश को अपनी गिरफ्त मे ले लेगा और तब हम अपने को लाचारगी की स्थिति मे देख रहे होंगे ।