गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

महज मोमबत्तियों से दूर न होगा अंधेरा



इधर कुछ समय से सामाजिक मुद्दों को लेकर भारतीय समाज मे एक अलग तरह की भावुकता दिखाई देने लगी है । भावनाओं का यह सैलाब जब तब अपने पूरे वेग के साथ आता है और जनमानस मे कुछ समय तक हलचल मचा कर कुछ इस तरह से विदा हो जाता है कि मानो कुछ हुआ ही नही । इस सैलाब के गुजर जाने के बाद कुछ भी शेष नही रह जाता । मामला चाहे निर्भया का हो या फिर अरूणा शानबाग का या  मणीपुर की चानू शर्मिला का अथवा समय समय पर होने वाली अमानवीय घटनाओं से उपजी संवेदनाओं का । सभी मे भावनात्मक प्रतिक्रियाओं का स्वभाव व चरित्र कमोवेश एक जैसा रहा है ।

दर-असल इसे एक विडंबना ही कहेंगे कि जब तक कोई इंसान जिंदा रहता है उसके रोज-ब-रोज के संघर्षों की सुध लेना वाला कोई नही होता । एक दिन जब यकायक पता चलता है कि उसने उस व्यवस्था से लडते हुए जिंदगी से ही अलविदा कह दिया,  भावनाओं और आंसूओं का जो सागर उमडता है उसका कोई किनारा दिखाई नही देता । कुछ अपवाद छोड दें तो इस तरह के भावनात्मक विस्फोट का कोई विशेष प्रभाव सामाजिक-राजनीतिक तंत्र पर पडता दिखाई नही देता । कुछ दिनों की हलचल, बहस व चर्चाओं के बाद सबकुछ पहले की तरह ही चलने लगता है ।

अभी हाल मे निर्भया मामले मे नाबालिग अपराधी को जेल से छोडे जाने के मामले मे फिर वही नजारा देखने को मिला जैसा घटना के समय दिखाई दिया था । हजारों की भीड मोमबत्ती लेकर सडकों पर आ जाती है और पूरे जोश खरोश के साथ लचर प्रशासनिक व न्यायिक व्यवस्था का विरोध करती है लेकिन वहीं दूसरे दिन कुछ ऐसा भी देखने को मिलता है जो इन मोमबत्तियों पर सवालिया निशान लगा देता है ।

मोमबत्तियों के रूप मे समाज की यह संवेदना बेशक मीडिया का ध्यान अपनी ओर खींच कर वाही वाही लूटती है लेकिन जब दूसरे ही दिन दुष्कर्म की शिकार कोई लडकी बेसुध सडक किनारे सहायता की उम्मीद मे हाथ उठाती है तो उसकी तरफ देखने वाला कोई नही होता । गौर करें तो निर्भया मामले मे भी ऐसा ही हुआ था । सडक किनारे नग्न अवस्था मे भीषण ठंड के बीच वह सहायता की गुहार लगाते रहे लेकिन दिल्ली के वही लोग अनदेखा कर आगे बढते गये । किसी को उस लडकी व उसके मित्र की हालत पर दया नही आई । लेकिन दूसरे ही दिन वही लोग मोमबत्ती लेकर अपनी सहानुभूति व्यक्त कर रहे थे ।

बस या रेल के सफर मे जब कोई महिला या लडकी गुंडों के दवारा परेशान की जाती है तब सभी खामोशी से तमाशा देखते हैं । यही नही, भावनाओं के इस विस्फोट पर तब फिर एक सवालिया निशान लगता है जब कोई भी यात्री जिसमे महिलाएं भी शामिल हैं , किसी गर्भवती महिला को नीचे की बर्थ देने को तैयार नही होती  । अभी हाल मे गोरखधाम एक्सप्रेस की स्लीपर बोगी मे अकेली सफर कर रही गर्भवती महिला गीता देवी के साथ यही हुआ । उसने लाख विनती की लेकिन किसी ने भी उसे अपनी नीचे की बर्थ उपलब्ध नही कराई जब कि वह उस हालत मे ऊपर की बर्थ पर चढ पाने मे बेहद परेशानी महसूस कर रही थी । अंतत: एक रिटार्यट फौजी ने उसकी सहायता की तथा उसे अपनी बेटी की निचली बर्थ उपलब्ध कराई । आए दिन ऐसे अमानवीय द्र्श्य देखने को मिलते हैं ।

सवाल उठता है कि यह कैसी संवेदना है जो मोमबत्तियों के रूप मे तो जब तब दिखाई देती है और हमे भावविभोर कर देती है लेकिन जब उस संवेदना की सबसे ज्यादा जरूरत होती है तो वह कहीं नही दिखाई देती ।

 कहीं ऐसा तो नही कि ' सिस्टम ' और प्रशासन  को सारी बुराईयों की जड बता कर हम अपने को किनारा कर लेते हैं । लेकिन यह शायद ही कभी सोचते हों कि इस ' सिस्टम ' को चलाने वाले कहीं न कहीं हम ही हैं । अलग अलग चेहरों व चरित्र के रूप मे हम ही ' सिस्टम ' का सृजन करते हैं । बहरहाल स्वस्थ सामाजिक परिवेश के लिए जरूरी है कि हम भावुक होकर प्रतिक्रिया न करें अपितु बुराईयों को जड से समझने का प्रयास करें । हमारी क्षणिक भावुकता से ऐसी समस्याओं का अंत नही होने वाला । बुराइयों के विरूध्द हमारी भी भागीदारी बेहद जरूरी है । 

मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

कैसे पूरा हो स्वच्छ व प्रदूषण मुक्त भारत का सपना


केजरीवाल जी का दिल्ली को प्रदुषण मुक्त देखने की हसरत हो या फिर मोदी जी का स्वच्छ भारत का सपना , भला कैसे पूरे  हों । यहां तो हर कुंए मे भांग पडी है । सामाजिक हित वाले इन प्रयासों के संदर्भ मे जब हम समाज की ओर देखते हैं तो यहां एक आत्मकेन्द्रित, स्वार्थपूर्ण समाज ही दिखाई देता है । जिसे देश व समाज के हित से ज्यादा अपने हित सुहाते हैं । अब ऐसे मे तमाम अच्छे प्रयासों की अकाल मौत का होना कोई अचरज की बात नही ।

मौजूदा प्रयासों के अतिरिक्त भी समय समय पर ऐसे तमाम प्रयास किये जाते रहे हैं । सामाजिक  हित के लिए किये गये उन तमाम प्रयासों मे अपवाद छोड कर शायद ही आशातीत परिणाम मिले हों । बढते प्रदूषण को रोकने के लिए प्लास्टिक के उपयोग पर रोक लगाने के प्रयास किये गये । थोडे समय के लिए कुछ अच्छे संकेत मिले भी लेकिन बहुत जल्द सबकुछ भुला दिया गया । बाजारों व दुकानों मे तथा दैनिक उपयोग मे प्लास्टिक की पन्नियों का धडल्ले से उपयोग आज भी जारी है । चुनाव प्रचार मे भी प्लास्टिक से बनी सामग्री का उपयोग बद्स्तूर जारी है । इसी तरह सार्वजनिक स्थलों मे ध्रुमपाम न करने के लिए कानून बनाया गया । इसके लिए दंड का भी प्राविधान है लेकिन लचर क्रियांवयन के चलते यह भी बस एक कानून बन कर रह गया है । लोगों को सार्वजनिक स्थलों पर ध्रुमपान करते देखा जा सकता है । तंबाकू गुटका पर रोक लगाई गई लेकिन कानून को बाई पास करके आज भी लोग धडल्ले से उसका उपयोग कर रहे हैं । बस फर्क यह है कि तम्बाकू पाउच  और सादे  मसाले के पाउच को अलग  अलग करके बेचा जा रहा है ।

अभी हाल मे उत्तरप्रदेश सरकार ने खुली सिगरेट की बिक्री पर प्रतिबंध लगाया है । अब कोई भी दुकानदार सिगरेट की डिब्बी तो बेच सकता है लेकिन खुली एक या दो सिगरेट नही । लेकिन क्या ऐसा हो पाया है ? आज भी खुली सिगरेट की बिक्री यथावत जारी है । बस फर्क इतना है कि पुलिस को एक और कमाई का जरिया दे दिया गया । उनकी मुट्ठी गरम कीजिए और खुली सिगरेट आराम से बेचिए ।

अब रही बात देश को स्वच्छ रखने की तो वह देश साफ सुथरे रह सकते हैं  जहां के नागरिक कूडेदान न मिलने पर केले का छिलका या पैकेट का रेपर अपनी जेब मे डालना बेहतर समझते हैं बजाय इसके कि उसे सडक पर फेंक दें । आज हम जिन यूरोपीय देशों के अनुसरण करने की बात करते हैं वहां की बेहतरी मे कानून से ज्यादा नागरिकों के ' सिविक सेंस ' की भूमिका महत्वपूर्ण है ।  लेकिन यहां तो अपना कूडा पडोसी के घर के सामने डाल देने मात्र से ही सफाई का कर्तव्य पूरा हो जाता है । बाकी सफाई तो बहुत दूर की बात है । अब ऐसे मे कैसे पूरा हो स्वच्छ भारत का सपना । चार दिन का तमाशा करना एक अलग बात है ।

प्रदूषण से ज्यादा जहां दिखावे की प्रवत्ति सोच मे प्रभावी हो तथा कार एक स्टेटस सिम्बल हो और रिश्तेदारों को दिखाने की चीज हो वहां सडकों पर कारों की संख्या को सीमित किया जा सकेगा, मुश्किल ही लगता है । यहां स्वयं की कार से जाना समृध्दि का प्रतीक माना जाता है और बस व मेट्रो को आम आदमी के साधन के  रूप मे समझा जाता है । वैसे यातायात के लिए सार्वजनिक साधनों की कमी को भी एक कारण माना जाता है । लेकिन अगर प्रर्याप्त संख्या मे सार्वजनिक साधनों को उपलब्ध करा दिया जाए तो क्या लोग उनके उपयोग को प्राथमिकता देंगे, इस सवाल का उत्तर मिलना बाकी है । बहरहाल बडा रोचक रहेगा केजरीवाल जी के प्रदूषण मुक्त  सपने के भविष्य को  भी देखना ।

दर-असल  आजादी के बाद हमें वह संस्कार ही नही मिले जिनकी उम्मीद अब जनसामान्य से की जा रही है । जिन देशों का  अनुसरण करने का प्र्यास किया जा रहा है वहां लोगों को राष्ट्र्भक्ति , राष्ट्रहित व सामाजिक सरोकार जन्म से ही  घुट्टी मे पिलाये गये हैं । यहां तो विकास और समृध्दि को जो दिशा दी गई उसमें इन विचारों का कोई स्थान ही नही है । भारतीय समाज मे  आत्मकेन्द्रित खुशहाली की सोच के बीच भला किसी को इन बातों से क्या मतलब ।

रही बात कानून की तो जिस देश मे कानूनों के क्रियान्वयन मे ही ईमानदारी न हो वहां बनाये कानूनों के परिणामों के बारे मे सोचा जा सकता है । सच तो यह है कि कानूनों को जमीनी स्तर पर लागू करने वाली मशीनरी ही उनके क्रियांवयन के प्रति गंभीर व ईमानदार नजर नही आती । वैसे भी जहां कानून  मानने से ज्यादा कानून तोडने की परंपरा हो वहां सकारात्मक परिणामों की उम्मीद स्वत: कम हो जाती है ।   वैसे भी कहावत है कि घोडे को खींच कर तालाब तक तो लाया जा सकता है लेकिन जबरदस्ती उसे पानी नही पिलाया जा सकता । ऐसा  ही कुछ इन सुधार कार्यक्रमों के साथ भी है । गंदगी फैलाने के दस बहाने और कार सडक पर लाने के भी दस बहाने । कानून को बाई पास करने के भी दस तरीके । बेचारा भारतीय कानून बस टुकर टुकर देखता भर रह जाए ।



मंगलवार, 8 दिसंबर 2015

असहिष्णुता के शिकार कश्मीरी पंडितों की व्यथा


( एल.एस. बिष्ट ) -संसद से लेकर सडक तक और आम आदमी से लेकर खास आदमी तक अगर कोई चीज चर्चा मे है तो वह है देश के सामाजिक परिवेश को लेकर उठा सहिष्णुता बनाम असहिष्णुता का मुद्दा । कुछ राजनीति दलों व समाज के एक छोटे वर्ग को महसूस होता है कि देश का सामाजिक परिवेश बिगड रहा है । इन्हें धार्मिक आधार पर आक्रामक होता समाज दिखाई दे रहा है । यहां गौरतलब यह है कि असहिष्णुता को देश मे अल्पसंख्यक वर्ग के हितों से जोड कर देखा जा रहा है । लेकिन आशचर्यजनक रूप से इस बहस मे उन लोगों की पीडा को सिरे से दरकिनार कर दिया गया है जो सही अर्थों मे असहिष्णुता के शिकार बने तथा आज भी उस दंश को झेलने के लिए अभिशप्त हैं ।

क्या यह कम अचरज की बात नही कि कश्मीर घाटी से कश्मीरी पंडितों के पलायन व उनके नरसंहार को पूरी तरह नजर-अंदाज किया जा रहा है । इनके पलायन को मानो एक साधारण घटना स्वीकार कर लिया गया हो । अतीत मे देखें तो कश्मीर घाटी से कश्मीरी पंडितों का पलायन असहिष्णुता का सबसे अच्छा उदाहरण है । एक क्षेत्र विशेष से एक वर्ग विशेष के लोगों को बल पूर्वक बाहर कर देना क्या असहिष्णुता नही है ? बात यही तक नही है । अभी कुछ समय पूर्व जब कश्मीरी पंडितों को दोबारा घाटी मे बसाये जाने की बात कही गई तब वहां के एक  वर्ग और अलगाववादी  नेताओं ने आसमान सर पर उठा लिया था ।


घाटी मे सक्रिय लगभग सभी अलगाववादी गुटों का मानना है कि अगर कश्मीरी पंडित घाटी मे अपने पुश्तैनी घरों मे आना चाहें तो बहुत अच्छा है लेकिन उनके लिए अलग कालोनी बनाये जाने से इजराइल और फलस्तीन जैसे हालात पैदा हो जायेंगे । जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट हो या आल पार्टी हुर्रियत  कांफ्रेस के गिलानी सभी इसका एक स्वर से विरोध कर रहे हैं । जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के मुहम्मद यासीन मलिक ने तो यहां तक कहा   कि मुफ्ती मोहम्मद सईद अब यहां आर.एस.एस. के ऐजेंडे को लागू करने जा रहे हैं ।

यह सब देखते हुए तो  कश्मीरी पंडितों को घाटी मे दोबारा बसाना सरकार के लिए आसान काम तो कतई नही दिख रहा । लेकिन दूसरी तरफ पिछ्ले 25 सालों से वनवास झेल रहे इन वाशिंदों को फिर इनके घरोंदों मे बसाना भी जरूरी है । आखिर यह कब तक दर-दर की ठोकरें खाते रहेंगे । सवाल यह भी कि आखिर क्यों ।

शरणार्थी शिविरों मे तमाम परेशानियों के बीच इनकी एक नई पीढी भी अब  सामने आ गई है और वह जिन्होने अपनी आंखों से उस बर्बादी के मंजर को देखा था आज बूढे हो चले हैं । लेकिन उनकी आंखों मे आज भी अपने घर वापसी के सपने हैं जिन्हें वह अपने जीते जी पूरा होता देखना चाहते हैं । इधर केन्द्र मे भाजपा सरकार के सत्ता मे आने के बाद और फिर जम्मू-कश्मीर मे भाजपा की सरकार मे साझेदारी ने इनकी उम्मीदों को बढाया है । इन्हें लगने लगा है कि मोदी सरकार कोई ऐसा रास्ता जरूर निकालेगी जिससे वह अपने उजडे हुए घरोंदों को वापस जा सकेंगे ।

दर-असल घाटी मे कभी इनका भी समय था । डोगरा शासनकाल मे घाटी की कुल आबादी मे इनकी जनसंख्या का प्रतिशत 14 से 15 तक था लेकिन बाद मे 1948 के मुस्लिम दंगों के समय एक बडी संख्या यहां से पलायन करने को मजबूर हो गई । फिर भी 1981 तक यहां इनकी संख्या 5 % तक रही । लेकिन फिर आंतकवाद के चलते 1990 से इनका घाटी से बडी संख्या मे पलायन हुआ ।  उस पीढी के लोग आज भी 19 जनवरी 1990 की तारीख को भूले नही हैं जब मस्जिदों से घोषणा की गई कि कश्मीरी पंडित काफिर हैं और वे या तो इस्लाम स्वीकार कर लें या फिर घाटी छोड कर चले जाएं अन्यथा सभी की हत्या कर दी जायेगी । कश्मीरी मुस्लिमों को निर्देश दिये गये कि वह कश्मीरी पंडितों के मकानों की पहचान कर लें जिससे या तो उनका धर्म परिवर्तन कराया जा सके या फिर उनकी हत्या । इसके चलते बडी संख्या मे इनका घाटी से पलायन हुआ । जो रह गये उनकी या तो ह्त्या कर दी गई या फिर उन्हें इस्लाम स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पडा ।

इसके बाद यह लोग बेघर हो देश के तमाम हिस्सों मे बिखर गये । अधिकांश ने दिल्ली या फिर जम्मू के शिविरों मे रहना बेहतर समझा । इस समय देश मे 62,000 रजिस्टर्ड विस्थापित कश्मीरी परिवार हैं । इनमे लगभग 40,000 विस्थापित परिवार  जम्मू मे रह रहे हैं और 19,338 दिल्ली मे । लगभग 1,995 परिवार देश के दूसरे हिस्सों मे भी अपनी जिंदगी बसर करने को मजबूर हैं ।

दुर्भग्यपूर्ण तो यह है कि जहां  पूरे देश मे असहिष्णुता पर बहस चल रही है । देश के बहुसंख्यक वर्ग को इसके लिए कटघरे मे खडा किया जा रहा वहीं दूसरी तरफ सही अर्थों मे  असहिष्णुता के शिकार बने कश्मीरी पंडितों  के दर्द और बेचारगी पर कोई मुखर हो बोलने को तैयार नही । सवाल उठता है कि आखिर कब तक घाटी का माहौल उनके लिए असहिष्णु बना रहेगा, क्या इस पर भी  कभी कोई राजनीतिक दल व बुध्दिजीवी  विचार करने की जहमत उठायेगा ।