रविवार, 14 सितंबर 2014

चमकदार सपनों में खोता बचपन

     

[ एल. एस. बिष्ट ] -   जगजीत सिंह की एक  बहुत ही अच्छी गजल है जो बरबस ही याद आती है – ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो,
 भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी,
 मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन,
 वह कागज की कश्ती, वह बारिश का पानी |
          बचपन को लेकर कही गई यह पंक्तियां उम्र की एक दहलीज पर पहुंचने पर किसी को भी भावुकता के समंदर मे डूबते- उतराने के लिए काफ़ी है | आखिर किसी को भी क्यों न बार-बार याद आए अपना बचपन | वह मासूम दिन, खेलने-कूदने के वह  बेफ़िक्र लम्हें कभी लौट कर नहीं आते |
     हर किसी की जिंदगी में बचपन का वह दौर और उससे जुडी यादें वसंत के फ़ूलों के मानिंद हमेशा महकती रहती हैं | लेकिन आज हमारे शहरों व महानगरों में यह बचपन कहीं खोता जा रहा है | चकाचौंध संस्कृति व चमकदार सपनें बचपन की मासूमियत को जाने अनजाने डसने लगे हैं और हम इसे बदले परिवेश के एक हिस्से के रूप में स्वीकार भी करने लगे हैं |
     लेकिन यदा कदा कुछ ऐसा भी होने लगता है कि हमारी यह सोच सवालों के कटघरे में खडी हो जाती है | हम सोचने लगते हैं आखिर ऐसा क्यों हुआ |
     अभी हाल में एक फ़िल्म अभिनेत्री श्वेता बसु को वेश्यावृति के आरोप में हैदराबाद के एक होटल से गिरफ़्तार किया गया | 23 वर्षीय इस अभिनेत्री ने इकबाल और मकडी जैसी फ़िल्मों में बतौर बाल कलाकार अपनी प्रतिभा का बेहतरीन प्रदर्शन किया था और उसे बेस्ट चाइल्ड आर्टिस्ट का राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार भी मिला | यही नही, इस अभिनेत्री ने कई दूरदर्शन सीरियल में भी बेजोड अभिनय किया और अपनी छाप छोडी | गिरफ़्तार किए जाने पर उसने बताया कि आर्थिक तंगी व घर की जिम्मेदारियों के कारण उसे यह सब करना पडा
         श्वेता बसु की यह नियति कई सवाल खडी करती है | यह भी सच है कि इस त्रासदी को भोगने वाली वह अकेली अभिनेत्री नहीं है | इसके पूर्व भी दक्षिण की कुछ अन्य अभिनेत्रियां व टी वी सीरियल से जुडी कलाकार वेश्यावृत्ति के विवाद का हिस्सा बन चुकी हैं जिन्हें समय के साथ भुला दिया गया |
     यही नही, फ़िल्मी दुनिया की चमक से जुडे और भी कई बच्चों को गुमनामी और उपेक्षा की त्रासदी भोगनी पडी है | जूनियर महमूद, मास्टर राजू को आज भी दूरदर्शन में कई छोटे मोटे रोल करते देखा जा सकता है | इनके अलावा मास्टर अलंकार, सलाम बाम्बे के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित शफ़ीक सैयद, आस्कर विजेता फ़िलम स्लमडाग की रूबीना अली, बहुचर्चित फ़िलम तारे जमीं पर बतौर बाल कलाकार दर्शील सफ़ारी, सत्तर के दशक की बेबी गुडडु, अस्सी के दशक में मासूम फ़िल्म से लोकप्रिय हुए जुगल हंसराज यह सभी आज कहां हैं |
     यह तो सिर्फ़ चंद उदाहरण हैं | गौर से देखें तो हमारे बडे शहरों व महानगरों में आज ब्च्चे इस राह में चल पडे हैं | फ़िल्मी दुनिया की चकाचौंध और दूरदर्शन की बढती लोकप्रियता ने इन्हें इस कदर अपने मोहपाश में बांध लिया है कि यह सब कुछ भूल कर इस दुनिया में छा जाने को आतुर दिखाई देने लगे हैं | अपने बचपन के जिन दिनों में इनका नाता स्कूल और किताबों से होना चाहिये था, यह बच्चे आडिशन टेस्ट की कतारों में खडे नजर आते हैं |
     दर-असल इधर कुछ वर्षों से शहरों का सामाजिक व सांस्कृतिक परिवेश तेजी से बदला है | इसे बदलने में हमारे लुभावने विज़ापनों और टी वी सीरियलों की रंगीन दुनिया की एक मह्त्वपूर्ण भूमिका रही है | अपनी टी आर पी बढाने व बच्चों तथा महिलाओं को अपने से जोडने की भी चुहादौड ने एक बिल्कुल नई संस्कृति को विकसित किया है | रियलटी शो जैसे कार्यक्रमों ने तो मानो बच्चों की दुनिया में क्रांति ही पैदा कर दी है | किसी रियलटी शो मे अगर देश भर के बच्चों को गाने के लिए आमंत्रित किया जा रहा है तो किसी मे नृत्य कला के जलवे बिखरने के लिए | इसके लिए बाकायदा शहर-दर शहर आडीशन टेस्ट आयोजित किये जा रहे हैं |
     इन कार्यक्रमों की रंगनियों और छोटे परदे पर अपने को नाचते गाते देखने के मोह ने शहरों के बच्चों को अपने मोहपाश मे बांध लिया है | यह अपनी पढाई लिखाई छोड इन कार्यक्रमों मे दिखाई देने के लिए अपना सब्कुछ दांव पर लगाने को आतुर भी दिखाई देने लगे हैं |
     दुर्भाग्यपूर्ण पहलू तो यह है कि इस चुहा दौड में इन बच्चों के माता-पिता भी पूरी तरह भागीदार हैं | वह भी अपने लाडले को टी वी के इन कार्यक्रमों में शामिल कराने के लिए जी तोड कोशिश में जुटे दिखाई देते हैं | मानो यही इनके बच्चों का एक्मात्र लक्ष्य हो | चकाचौंध और शोहरत का नशा इस कदर है कि इसके लिए अपने बच्चों के भविष्य को भी खतरे में डालने से कोई परहेज नहीं| ऐसे तमाम बच्चों को महानगरों में घंटों रियाज करते देखा जा सकता है |
     यहां गौरतलब तो यह है कि परदे की चकाचौंध व शोहरत के मोहपाश ने बच्चों व इनके माता-पिता कि इस कदर अपनी गिरफ़्त मे ले लिया है कि इन्हें भविष्य के खतरे नहीं दिखाई दे रहे हैं |  जब कि इस दुनिया की सच्चाई यह है कि चंद दिनों की चांदनी फ़िर अंधेरी रात | ह्जारों मे दो एक बच्चे बेश्क ऊंचाइयों तक पहुंच ग्लैमर की इस दुनिया का हिस्सा बन भी जायें लेकिन अधिकांश के हिस्से में तो मायूसी ही आती है | कुछ समय तक परदे पर दिखाई देने बाली यह बाल प्रतिभाएं समय के साथ गुम हो जाती हैं | ऐसे में पढाई-लिखाई को पहले ही नजर-अंदाज कर देने वाले इन बच्चों के लिए यही कहा जा सकता है कि न खुदा ही मिला न विसाले सनम | और फ़िर चंद दिनों की यह शोहरत और वाही वाही इन्हें कहीं का नहीं छोडती |

     दर-असल ग्लैमर और चकाचौंध की नव विकसित यह दुनिया हमारे चारों तरफ़ बडी तेजी से पंख फ़ैला रही है | इसकी चमक के पीछे की अंधेरी दुनिया हमें आसानी से दिखाई नही देती | मासूम बच्चे भी इस चमक दमक का आसानी से शिकार बनने लगे हैं | यही स्थिति रही तो न जाने कितने बच्चे इस चमकदार दुनिया के मोह मे पड कर एक अंधेरी, गुमनाम और कुंठित दुनिया की राह मे चल पडेंगे |  जरूरी है कि समय रहते इन खतरों को महसूस कर बच्चों को उनके स्वाभाविक बचपन में ही रहने दें जहां से वह अपने लिए एक खुशहाल भविष्य की राह बना सकें | 

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