जब हम हिमालय बेल्ट या क्षेत्र की बात करते हैं तो उसका विस्तार हिमाचल, जम्मू-कश्मीर से लेकर उत्तर पूर्व के उपेक्षित राज्यों तक जाता
है । जिसमे उत्तराखंड भी सम्मलित है । मोटे तौर पर भौगोलिक रूप से यह ऊंची-ऊंची पहाडियों, घने जंगलों, वेगवती
नदियों और बर्फ के संचित भंडार का क्षेत्र है । इस संपूर्ण क्षेत्र की जलवायू भी कमोवेश
एक सी है । यही नहीं, यहां की समस्याओं और जरूरतों
मे भी बहुत ज्यादा अंतर नही है । लेकिन यह इस क्षेत्र की त्रासदी रही है कि इस पर कभी
पर्याप्त ध्यान दिया ही नही गया । एक तरफ जहां देश विकास की सीढियां चढता रहा वहीं
दूसरी तरफ हिमालय क्षेत्र के राज्य विकास की बाट जोहते रहे ।
क्या यह जानना अब भी शेष
है कि देश की सुरक्षा की द्र्ष्टि से भी यह क्षेत्र बेहद संवेदनशील व महत्वपूर्ण है
। उत्तराखंड से लेकर उत्तर पूर्व के सीमांत राज्यों के भू-भाग पर चीन की नजर हमेशा
रही है । समय- समय पर छोटी बडी घुसपैठ इस क्षेत्र मे आम बात हो गई है । अगर यहां सडकों, हवाई अड्डों का मजबूत जाल नहीं तो देश भला कैसे सुरक्षित रह
सकता है । आज उत्तराखंड मे सडकों का जो जाल बिछा है, वह 1962 मे भारत-चीन युध्द के उपरांत ही विकसित हो सका । लेकिन अब इस संपूर्ण क्षेत्र
को विकसित सुरक्षा तंत्र की जरूरत है क्योंकि चुनौतियां कहीं ज्यादा गंभीर हैं । मोदी
सरकार इस क्षेत्र के इस संवेदनशील पहलू को अच्छी तरह समझ चुकी है ।
यही नही, हमारी घोर उपेक्षा व अदूरदर्शी नीतियों ने इस क्षेत्र को गंभीर
क्षति पहुंचाई है । हिमालय क्षेत्र जो संपूर्ण उत्तर भारत की जलवायू को नियंत्रित करता
है, प्रदुषण की मार झेल रहा है । पर्वतारोहण
अभियानों की बाढ इसे गंदगी का ढेर बना रही है । रास्तों मे कूडे के ढेर और पेड पौधों
का सत्यानाश किया जा रहा है । जल धाराओं में भी गंदगी फैलाई जा रही है । पोलीथीन, खाली टिन के डिब्बे, जूस की बोतलें, रस्सी-खूटियों को कहीं भी देखा
जा सकता है ।
दूसरी तरफ वनों के अंधाधुंध
दोहन ने एक नया ही संकट पैदा कर दिया है । वह घने जंगल जो कभी वर्षा बादलों को रोकने
काम बखूबी किया करते थे, अब असहाय नजर आते हैं ।
वन माफियों की चोरी और सीनाजोरी ने इस क्षेत्र के वनों को बर्बादी की हद तक पहुंचा
दिया है । सरकार की अदूरदर्शी नीतियां आग मे घी का काम कर रही हैं । उत्तराखंड का चिपको
आंदोलन इस दर्द के गर्भ से ही उपजा और जंनसामान्य मे विस्तारित हो चेतना का प्रतीक
बना । लेकिन वनों के दोहन का कुचक्र अभी खत्म नही हुआ है ।
दूसरी तरफ खंनन ने भी हिमालयी
क्षेत्र को कम नुकसान नहीं पहुंचाया । डायनामाइड विस्फोट से कमजोर हुई हिमालय की कच्ची
पहाडियों मे हो रहा भू-स्खलन इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है । मौसम की पहली बरसात मे ही
यहां भीषण भू-स्खलनों की श्रंखला शुरू हो जाती है । केदार घाटी का हादसा इस निर्मम
सच का गवाह है । लेकिन कानूनी व गैरकानूनी खनन बदस्तूर जारी है ।
हिमालय क्षेत्र पुरातन
काल से ही प्राकृतिक संसाधनों की द्र्ष्टि से समर्ध्द रहा है । वन संपदा के साथ ही
संपूर्ण क्षेत्र जडी-बूटियों का भी भंडार है । इस क्षेत्र के लोग पुरातन काल से यहां
पाई जाने वाली औषधियों से ही अपना इलाज करते आये हैं । लेकिन अब यहां इनका भंडार खतरे
मे है । इनकी चोरी और तस्करी आम हो गई है । तस्कर, ठेकेदार व् कुछ दवा कंपनियां अपनी जेबें भर रहे हैं । सरंक्षण के अभाव मे कई दुर्लभ
बूटियां लुप्त होने की कगार पर हैं । इसे रोकना तभी संभव है जब हिमालय की इस संपदा
के रख-रखाव व सुरक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाये और इसके लिए कानून बने ।
यही नही, बिगडते पर्यावरण के कारण बर्फ का संचित भंडार तेजी से पिघल रहा
है । यही कारण है कि गो-मुख पीछे हटता जा रहा है । पहाडी नदियों व झीलों मे हिमखंड
तैरने लगे हैं । भूवैज्ञानिकों की रिपोर्ट आने वाले खतरों की तरफ इशारा कर रही हैं
। अगर यही स्थिति यही रही तो जलवायू का संतुलन तो बिगडेगा ही नदियों व सागरों में उथल-पुथल
भी संभव है ।
इस तरह एक तरफ तो इस हिमालय
क्षेत्र की वन संपदा, जडी-बूटियों, पर्यावरण, धार्मिक
स्थल व वन आधारित उधोग उपेक्षा की मार झेल रहे हैं तो दूसरी तरफ गलत नीतियों से भू-स्खलन
व बिगडते पर्यावरण की समस्या गंभीर होती जा रही है । विकास के अभाव मे सीमांत क्षेत्रों
की सुरक्षा भी चाक-चौबंद नही । इसमे कोई शक नही कि इस हिमालय क्षेत्र के विकास व सरंक्षण
के बिना न तो देश के पर्यावरण को सुरक्षित रखा जा सकेगा और न ही गंगा की पावन धारा
को ।
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