( L. S. Bisht ) स्वतंत्रता के बाद की राजनीति पर नजर डालें
तो एक बात पूरी तरह से साफ़ हो जाती है कि चुनाव दर चुनाव भारतीय राजनीति मे
सामाजिक मुद्दों व विकास की चिंताओं की धार कुंद होती गई है | राजनीतिक दलों की
चिंता का विषय देश का विकास नही अपितु वोट का विस्तार रही है | यह प्रवत्ति
साल-दर-साल प्रत्येक राज्य व राजनीतिक दल मे कुछ और मजबूती से विस्तारित होती
दिखाई दे रही है | वोट पर केन्द्रित इस राजनीतिक चिंतन ने समाज से जुडे उन सवालों
को पूरी तरह दरकिनार कर दिया है जिन पर गहराई से सोचा जाना चाहिए था | आज स्थिति
यह है कि तमाम सामाजिक मुद्दे हमारी राजनीतिक चिंता के दायरे से बाहर हैं |
अभी हाल की कुछ घटनाओं को ही लें तो बात समझ
मे आती है | मुंबई मे जहरीली शराब के कारण लगभग 100 लोगों को असामयिक मृत्यु का
ग्रास बनना पडा | एक ही शहर मे बल्कि यूं कहें कि शहर के एक ही क्षेत्र मे इतनी
मौतें क्या किसी को सुन्न कर देने के लिए प्रर्याप्त नहीं हैं |
तमाम टी वी चैनलों पर दिन दिन भर इन मौतों से
उपजे करूण द्र्श्यों को दिखाया जाता रहा | रोते बिलखते परिवारों के मार्मिक
द्र्श्यों के साथ पुलिस के “ कडे कदमों “ व “ आवश्यक कार्रवाहियों “ के द्र्श्य भी
तमाम सवाल उठाते रहे | लेकिन लाख टके का सवाल आज भी अपनी जगह पर है कि क्या अब हम
फ़िर किसी शहर मे जहरीली शराब का तांडव होने का समाचार नही सुनेंगे |
लेकिन हम जानते हैं कि ऐसा नही होगा | पहले
भी जहरीली शराब देश मे कहीं न कहीं लोगों को काल का ग्रास बनाती रही है और मौत के
इस ताडंव के बाद भी बनाएगी | यह सिलसिला रूकेगा ऐसा सोचना दिवा स्वप्न से ज्यादा
कुछ नही | दर-असल देश के भीतर होने वाली इस तरह की मौतें हमारे राजनीतिक तंत्र को
विचलित नही करतीं | यह निष्ठुर तंत्र जानता है कि उसके अंदर से ही एक ऐसा भ्र्ष्ट नौकरशाही
तंत्र विकसित होकर भस्मासुर बन चुका है जो इतनी आसानी से ख्त्म होने वाला नही | यह
भ्र्ष्ट तंत्र राजनीतिक तंत्र से ही जन्मा और विकसित होकर आज ताकतवर होकर अजेय सा
दिखने लगा है |
दर-असल इस देश मे अब यह भ्र्ष्ट तंत्र उस मेढ
की तरह है जो स्वयं ही खेतों को निगलने लगे | पुलिस और आबकारी विभाग जिन्हें ऐसे
काले कारोबार पर नजर रखनी चाहिए, स्वयं ही उसके संरक्षक बने हुए हैं | उनके ही
आर्शीवाद की छ्तरी तले यह जहरीला कारोबार प्रत्येक राज्य, शहर और गांव-कस्बों मे
फ़लता फ़ूलता है | भ्र्ष्ट राजनीतिक तंत्र से जन्मे इस नौकरशाही तंत्र के आगे अब
स्वयं राजनीति बेबस नजर आने लगी है | यह बेबसी ही इन अकाल मौतों के लिए सीधी तौर
पर जिम्मेदार है | यह दीगर बात है कि हमें इसका वह चेहरा दिखाई नही देता बल्कि हमे
दिखाई देते हैं शराब के पाउच या बोतलें | हमारा सारा आक्रोश उन बेजान पाउच व बोतलों
पर केन्द्रित होकर रह जाता है और राजनीति व नौकरशाही का भ्र्ष्ट चेहरा कटघरे से
बाहर खडा दिखाई देता है |
यहां यह समझ लेना जरूरी है कि जब तक हम इस
राजनीतिक व नौकरशाही तंत्र को कटघरे मे खडा नही करते और उसके विरूध्द अपनी आवाज
बुलंद नही करते, इस तरह के हादसे बार बार होते रहेंगे | इसलिए जरूरी है कि इंसानी
जिंदगी को चंद रूपयों के बदले मौत के सौदागरों के हाथों गिरवी रखने वाले इस तंत्र
अथवा सिस्टम को खत्म किया जाना चाहिए और यह कार्य लोकतंत्र मे मुश्किल नही बशर्ते हम पूरी ताकत और इच्छाशक्ति से आगे आने
का साहस करें |
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