रविवार, 19 अप्रैल 2015

कश्मीर घाटी / विपक्षी दलों की राजनीति पर सवाल


( L.S. Bisht ) -देश की आजादी के उन पलों में शायद किसी ने भी यह कल्पना न की होगी कि एक दिन लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था मे वोट की राजनीति देश के हितों पर ही कुठाराघात करेगी | आज चंहु ओर वोट की लालसा मे देश के भविष्य की कब्र खोदने वाले प्रयासों की कमी नही दिखाई दे रही | सच तो यह है कि अब हमारे राजनीतिक दलों को देश से ज्यादा वोट की चिंता है | यही कारण है कि सभी राजनीतिक फ़ैसलों पर राष्ट्र्हित की बजाए वोट हित की छाया ज्यादा दिखाई देती है | आज इस चुहा दौड मे कोई भी पीछे नही |
     कश्मीर घाटी मे अलगाववादी जिन नारों को बुलंद कर देश की अखंडता व सम्मान को खुली चुनौती दे रहे हैं, यह शर्मनाक ही नही अपितु गंभीर चिंता का विषय भी है | लेकिन दूसरी तरफ़ वहां सत्तारूढ पीडीपी समेत देश के सभी प्रमुख विपक्षी दल अपनी रोटियां सेंकने से बाज नही आ रहे | उनके राजनीतिक वक्तव्यों से कहीं आभास नही हो रहा कि उन्हें राष्ट्र्हित की चिंता है |
     कांग्रेस के कुछ नेताओं और नवगठित छ्ह दलों के जनता परिवार गठबंधन ने जिस तरह की बयानबाजी की है, उससे इनके राजनीतिक इरादे पूरी तरह साफ़ हो जाते हैं | यहां गौरतलब यह भी है कि एक तरफ़ अलगाववादियों से नरम रूख रखने बाले मुख्यमंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद की राजनीतिक पैतरेबाजी कश्मीर घाटी के माहौल को बिगाडने का काम कर रही है, वहीं  दूसरी तरफ़ उनसे जनता परिवार मे शामिल होने का आग्रह भी किया जा रहा है |
            राजनीतिक नजरिये से अगर इसे महज गठबंधन को मजबूत करने की रणनीति ही मान भी लिया जाए तो भी ऐसे हालातों मे मुख्यमंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद से मिलना और न्योता देना राष्ट्र्हित मे तर्कसंगत तो कतई नही लगता | इससे तो देश के दुश्मनों को बढावा ही मिलेगा |
     कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने जिस तरह अलगाववादी नेताओं को “साहब “ कह कर संबोधित किया उसने एक तरह से उन ताकतों का हौंसला बढाने का काम ही किया है | राष्ट्रीय एकता व अखंडता के संवेदनशील मुद्दों पर पहले भी इस तरह की घटिया राजनीति ने देश का कम नुकसान नही किया है |
     थोडा गौर से देखें तो लोकतांत्रिक व्यवस्था मे वोट की यह राजनीति अब राष्ट्र्हित की कीमत पर की जाने लगी है | पाकिस्तान समर्थक मसर्रत आलम को रिहा कर पूरी घाटी को हिंसा की आग मे झोंकने के पीछे यही वोट बैंक की राजनीति काम कर रही है | अब जब चौतरफ़ा दवाब मे उसे फ़िर नजरबंद कर दिया गया है, हिंसा ने पूरी घाटी को चपेट मे ले लिया है |
     ऐसे विषम हालातों मे भी हमारे विपक्षी दल राष्ट्र्हित को नजर-अंदाज कर अपने वोटों की राजनीति का गणित साधने मे लगे हैं | दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि विरोधी दलों की रूचि समस्या के हल से ज्यादा भाजपा-पीडीपी गठबंधन के बीच दरार पैदा करने मे है | उन्हें न राष्ट्र्हित दिखाई दे रहा है और न ही घाटी का गर्म होता माहौल |
     देश के इन राजनीतिक दलों के इस व्यवहार का पूरा पूरा लाभ हाफ़िज सईद जैसे लोगों को मिल रहा है जो न सिर्फ़ भारत के खिलाफ़ जहर उगल रहे हैं बल्कि  ‘ कश्मीर की आजादी ‘ का सपना भी देख रहे हैं | इससे बडा और दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि एक तरफ़ देश के दुश्मनों की आवाज एक है वहीं हमारे राजनीतिक दल आत्मघाती बयानबाजी कर आग मे घी डालने जैसा काम कर रहे हैं | कुछ ने शुतुरमुर्गी रवैया अपना लिया है | यह सब कुछ महज वोट और तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए |
     आज जो हालात पैदा हो गये हैं, उसमे यह जरूरी हो गया है कि अलगाववादी नारों को उछालने वालों और पाकिस्तान का झंडा लहराने वालों से पूरी सख्ती से निपटा जाए | यह भी जरूरी है कि देश के सम्मान और प्रतिष्ठा की कीमत पर सत्ता समीकरणों को साधने वाले राजनीतिक दलों की भूमिका को भी बेनकाब किया जाए | तमाम राजनीतिक विराधाभासों के बाबजूद, भारतीय जनमानस का यह एक सुखद पहलू है कि उसमें राष्ट्रभावना व देशप्रेम की कमी कहीं नही दिखती | देश का आम नागरिक आज भी ऐसे हालातों मे देश के साथ खडा दिखाई देता है | इस सकारात्मक पहलू का उपयोग ऐसे राजनीतिक दलों  को बेनकाब करने के लिए किया जाना चाहिए जिनकी कथनी और करनी देशहित को नजर-अंदाज कर राजनीतिक लाभ की रोटियां सेंकने का काम कर रही हैं |
     बहरहाल, घाटी के हालात भाजपा के लिए अग्निपरीक्षा से कम नही हैं | उसके राष्ट्र्प्रेम , सख्त प्रशासन,  हिन्दुत्व व सांस्कृतिक सोच की साख भी दांव पर लगी है | अगर कश्मीर घाटी को अलगाववादियों के चंगुल से मुक्त न कराया जा सका और इसी तरह पाकिस्तान समर्थक नारे लगते रहे तो इसका सबसे बडा राजनीतिक खामियाजा  भाजपा को ही उठाना पडेगा |

     

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