शुक्रवार, 20 जून 2014

पहाड जाने वाली सडक

        
 ( L.S.Bisht ) -चंद दिनों के सैर-सपाटे के बाद, न चाहते हुए भी अंतत: विदाई लेनी ही पडी अपने पहाडों, वादियों और हरे भरे जंगलों से | लौटना ही था इक ऐसे शहर मे जिसका जन्म और कर्म दोनो से ही गहरा जुडाव रहा है मेरी जिंदगी से |  लेकिन उन पहाडों और घाटियों की तरफ़ पीठ करके राजधानी आने वाली सडक पर आना मेरे लिए कभी भी इतना आसान नही रहा | यह हमेशा मेरे लिए बेहद भावुक लम्हे रहे हैं | पहाड के यह सीढीदार खेत और मकान चाहे कितने ही छोटे क्यों न हों , अपनेपन का एहसास तो दिलाते ही हैं | यह हमारे पुरखों की उस इतिहास को जीवंत रखते हैं जो कभी इन घाटियों , जंगलों और पहाडों से जुडे रहे हैं | रिश्तों की विरासत की यह डोर बरसों बरस बाद भी कहीं से कमजोर नही दिखती | शायद अपनी मिट्टी, खेतों, जंगलों, झरनों और नदियों से यह जुडाव  ही मुझे  खींचता रहा है | सिर्फ़ मैं ही नही, मेरी उम्र के तमाम लोग जो हिमालय क्षेत्र की इन वादियों से कहीं दूर आ बसे हैं ,इस संवेदना को पूरी शिद्दत के साथ महसूस करते हैं |
          दर-असल पहाड की यह त्रासदी रही है कि हिमालय का यह अंचल प्राकृतिक सौंदर्य की द्र्ष्टि से चाहे कितना ही समृध्द क्यों न रहा हो लेकिन रोजगारविहीन तथा सुविधाओं की कमी और दुर्गम भौगोलिक परिस्थितियां यहां के वाशिंदों के पलायन का कारण बनी हैं | जिस तरह पहाडी नदियां अपने साथ वहां की उपजाऊ मिट्टी को बहा कर मैदानों पर लाती हैं ठीक  वैसे ही रोजगार के लिए लोगों का पलायन आजादी के बाद से बदस्तूर जारी रहा | राजधानी आने वाली सड्कों का मोह उन्हें दिल्ली, लखनऊ और मुंबई जैसे शहरों की तरफ़ ले तो आता है लेकिन फ़िर यह शहर व महानगर उन्हें अपने मोहपाश मे ऐसा बांध लेते हैं कि अपनी मिट्टी से उनका नाता टूटने और बिखरने लगता है | न चाहते ह्ये भी वह वहीं का होकर रह जाता है | और फ़िर अपने ही पहाडों से उसका रिश्ता उन चंद दिनों तक सीमित होकर रह जाता है जब वह गर्मियों मे बच्चों के स्कूल की छुट्टियों मे यहां आता है और फ़िर एकदिन छुट्टियां खत्म होने पर  भारी मन से उसे लौटना ही पडता है अपने उस शहर की ओर जो उसकी बेहतर जिंदगी के सपनों से जुडे हैं |
     वीरांन होते पहाड के गांव इस त्रासदी के गवाह हैं | यह एक ऐसी सच्चाई है जो किसी सरकारी आंकडों की मोहताज नहीं | पुरूष विहीन होते पहाड की ढालों मे बसे हजारों गांव इस  सच के स्वंय गवाह हैं | सपनों के यह शहर रफ़्ता-रफ़्ता उन्हें वह सबकुछ  तो देते हैं जिनकी चाह मे उसने कभी अपने गांव, जंगलों को अलविदा कहा था लेकिन एक उम्र गुजर जाने पर उसे फ़िर अपनी जडों की याद सालने लगती है | याद आने लगते हैं बचपन कि दिन, संगी साथी , सीढीदार छोटे-छोटे खेत, चीड, शाल और देवदार के जंगल, आंचलिक कहानियों को समेटे सुरीले लोकगीत | लेकिन नगरों-महानगरों मे बसे बहुत कम ही लोग अपनी जमीन से दोबारा जुड पाते हैं | एक बडी संख्या उस शहर की होकर रह जाती है जहां बेहतर जिंदगी के जिद्दोजहद मे उसने अपनी उम्र के कई द्शक होम कर दिए और फ़िर आने वाली पीढियों के लिए तो वापसी मानो एक सपना बन कर रह जाती है
      उत्तराखंड कहे जाने वाले हिमालय के इस अचंल के वाशिदों की इस भावनात्मक पीडा की एक अलग ही अनकही कहानी है लेकिन अलग राज्य के बाद कुछ उम्मीदें जगी हैं | धीरे धीरे विकास की सीढियां चढता यह सीमांत प्रदेश एक दिन संभवत: रोजगार की इतनी संभावनाएं विकसित कर सकेगा कि भविष्य मे पहाड से मैदानों की तरफ़ पलायन स्वत: ही खत्म होने लगे | बहरहाल जब तक यह संभव नही, तब तक  मेरी तरह वादियों के इन वाशिदों को भी पहाड जाने वाली सडक हमेशा रोमांचित  और आकर्षित करती रहेगी | 

11/508, Indira Nagar,

Lucknow 

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