शुक्रवार, 13 जून 2014

हाथों से दूर होती किताबें

      
( L.S. Bisht ) -  हम जानबूझ कर सच्चाई से मुंह न मोडना चाहे तो यह्बात स्वीकार कर ली जानी चाहिए कि आज जो उप्भोक्तावादी संस्क्रृति हमारे चारों तरफ़ विकसित हो रही है उसमे किताबों का बाजार तेजी से सिमटता जा रहा है | कपडों के फ़ैशन की बात हो या फ़िर अपने चेहरे मोहरे को सजाने संवारने की या फ़िर फ़र्राटेदार गाडी मे हवा से बात करने हुए जमाने से भी आगे निकल जाने की, इन सभी के प्रति तो हम काफ़ी जागरूक हुए हैं | लेकिन पढने-पढाने की प्रवत्ति तेजी से घट रही है |वरना और क्या कारण हो सकता है कि जहां एक तरफ़ नये नये उपभोक्ता वस्तुओं का बाजार खूब फ़ल-फ़ूल रहा है वहीं दूसरीतरफ़ रोज एक नया बुक स्टाल खुलता है और जल्द ही परचून की दुकान मे तब्दील हो जाता है |
     आज हालात यह हैं कि पूरा बाज्रार घूम आइए सजी धजी दुकानों मे सबकुछ मिल जाएगा लेकिन कहीं कोई ऐसी दुकान शायद ही मिल सके जहां आप अपनी जरूरत की साहित्यिक किताबें या कुछ स्तरीय पत्रिकाएं खरीद सकें | अल्बत्ता किसी कोने मे फ़ुटपाथ पर लावारिश सी पडी कुछ पत्रिकानुमा चीजें भडकीले कवर पृष्ठों के साथ जरूर दिख जायेगीं |
     बाजार से हट कर अगर हम अपने घर की दुनिया को भी थोडा गौर से देखें तो पता चलेगा कि  यहां भी पत्र-पत्रिकाएं व पुस्तकें गैरजरूरी चीजें समझी जाने लगी हैं| तुर्रा यह कि मंहगाई का रोना रोते ह्ये हम फ़्रीज, टी वी, एअरकंडीशन तो खरीद सकते हैं लेकिन एक किताब नही | बाजार मे उप्भोक्ता वस्तुओं की कीमतों का ग्राफ़ जरा भी ऊपर गया नही कि हम घरेलू खर्चों मे कटौती की बात सोचने लगते हैं और तब सबसे पहले हमारा ध्यान  जाता है हर माह या सप्ताह आने वाली पत्रिकाओं पर | इससे हम नाता तोड लेना ज्यादा बेहतर समझते हैं |
     उसके बाद जरूरी हुआ तो कटौती की कैंची चलती है रोज सुबह आंगन मे गिरने वाले अखबार पर और इस तरह इन्हें अपने घरेलू बजट से बाहर कर हम चैन की सांस लेते हैं मानो मंहगाई की मार पर हमने सफ़ल हमला कर उसे पराजित कर दिया हो | पढने की आदत से छुटकारा पाने की यह प्रवत्ति तेजी से विकसित हुई है और अब तो शायद हम भूल ही गए हैं कि किताबें कभी हमारी जिंदगी का महत्वपूर्ण हिस्सा हुआ करती थीं |
     कम्प्यूटर और इंटरनेट ने भी किताबों को कम नुकसान नही पहुंचाया | जब एक क्लिक पर पूरी दुनिया की जानकारी आपकी आंखों के सामने हो तो भला किताबों के पन्ने पलटने की जहमत कौन उठाना चाहेगा | लेकिन छ्पे शब्दों को पढने वाले लोगों को पता है कि कागज पर छ्पे शब्दों और स्क्रीन पर चमकते शब्दों मे क्या अंतर है | वह बात कहां | अगर सिर्फ़ यही कारण होता तो दर्जनों न्यूज चैनलों के रहते अखबार कब का दम तोड चुके होते | लेकिन ऐसा तो नही हुआ | अखबार आज भी सुबह की जरूरत बना हुआ है | इसका सीधा सा मतलब है कारण कहीं और भी हैं |
     थोडा पीछे मुड कर देखें तो बहुत समय नही गुजरा जब प्रदेश मे इलाहाबाद, बनारस व लखनऊ जैसे शहर साहित्यिक गतिविधियों के केन्द्र माने जाते थे | यहां से  न सिर्फ़ श्रेष्ठ व स्तरीय साहित्य का प्रकाशन होता था अपितु उसे पाठकों तक पहुंचाने के लिए पुस्तकालयों व पुस्तक केन्द्रों का एक जाल सा बिछा था | किसी भी नई किताब पर चर्चा न हो यह असंभव था | अब न तो ऐसी दुकाने रहीं और सार्वजनिक पुस्तकालयों की दुर्दशा की तो अपनी कहानी है | आलम यह है कि यह बचे खुचे पुस्तकालय युवक-युवतियों के मिलन स्थल बन कर रह गये हैं |
     इधर कुछ वर्षों से शहरों मे जो बडी बडी आवासीय योजनाएं बनी हैं उनमे दो चीजें नदारत मिलेंगी | एक है सार्वजनिक शौचालय दूसरा पुस्तकालय | बाकी शापिंग माल्स, मल्टी फ़्लैक्स, आइसक्रीम पार्लर, ब्यूटी पार्लर, साइबर कैफ़े और यहां तक कि बार भी आसानी से दिख जायेंगे |
     कुल मिला कर आज स्थिति यह है कि पुस्तकें समाज से दूर हो रही हैं | इसे यह भी कहा जा सकता है कि समाज ही किताबों से दूर हो रहा है | कभी कधार पुस्तक मेलों का आयोजन भी किया जाता है लेकिन वहां भी चहल कदमी करने वालों की ही संख्या ज्यादा दिखाई देती है | किताबों के शौकीन कम ही नज्रर आते हैं | फ़िर भी ऐसे आयोजन जरूरी हैं | कम से कम कुछ पाठकों को तो किताबें सुलभ हो ही जाती हैं |
     सवाल सिर्फ़ किताबों या पैसों का ही नही है बल्कि सम्मूर्ण बौध्दिकता और संस्कृति का है | इससे बडा दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि जहां कभी किताबें आम आदमी की जिंदगी का हिस्सा रही हों वहीं आज पाठक अच्छे साहित्य से दूर खडा दिखाई देता हो | यहां तक कि छात्र भी अपनी पाठय पुस्तकों को छोड कुछ और पढना न चाहते हों | समाज और किताबों के बीच बढ्ती इन दूरियों पर आज एक गंभीर चिंतन की आवश्यकता है | प्र्काशन से लेकर बाजार व्यवस्था तक के पूरे तंत्र की पडताल की जानी चाहिए | इस विषय पर भी सोचा जाना चाहिए कि आखिर पुस्तक प्रकाशन क्यों घाटे का व्यवसाय बनता जा रहा है | जब कि हमारे गांव-कस्बों व शहरों मे आज भी करोडों पाठक हैं |
     कुचक्र मे फ़ंसी किताबों की दुनिया की उलझनों को समझने के लिए हमे आज के परिवेश को भी समझना होगा | यह सच है कि आज दूरदर्शन ने एक ऐसा तिलिस्म रच लिया है जिसके बाहर सब्कुछ बदरंग सा दिखने लगा है | रही सही कसर पूरी की है हमारे हिन्दी सिनेमा ने | इसके साथ ही आम भारतीय के सुधरते जीवन स्तर पर पाश्चातय संस्कृति की छाप ने भी कम नुकसान नही पहुंचाया | लेकिन इन रंगीन आकषर्णों व बदलाव के बीच पढने की आदत भी समान्तर रूप से साथ-साथ रही होती अगर लेखक , प्रकाशक व प्रिन्ट मीडिया ने अपनी भूमिका का निर्वाह ईमानदारी से किया होता |  दोष दूरदर्शन  या सिनेमा का नही बल्कि प्रकाशन से जुडे उस तंत्र का है जो बदलाव की बयार मे शुतुर्मुगी सिरगडाऊ युक्तियों से बचने का प्रयास करता रहा है | और आज भी एक विधवा की तरह विलाप कर रहा है |
     आज लेखक को न पढे जाने का दुख है तो प्रकाशक को किताबें न बिक पाने की चिंता | हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं का रोना इस बात पर है कि हिन्दी के पाठक स्तरीय और गंभीर साहित्य पढना ही नही चाहते | सवाल उठता है कि यह स्थिति मराठी, मलयालम या बंगला जैसी दूसरू भाषाओं के साथ क्यों नही है | हिन्दी जैसी भाषा जिसके पास एक विराट आकाश है पाठक को नही तलाश पा रही है |
     बहरहाल किताबों की दुनिया कई कुचक्रों मे फ़ंसी दिखाई देती है | अब तो पत्र-पत्रिकाओं का पूरा मिजाज ही बदल चुका है | पाठकों मे पढने के संस्कार डालने जैसी भूमिका से प्रिन्ट मीडिया पूरी तरह से दूर हो चला है | जो बिके वही छापो की नीति अपनाई जा रही है | अब वह चाहे अशलील हो या फ़ूहड, इससे कोई लेना देना नही | कभी अखबारों मे सामयिक लेख, फ़ीचर , कहानी व कविता आदि प्रकाशित हुआ करते थे, अब आधे-अधूरे कपडों मे युवतियों की फ़ोटो , युवाओं के नाम पर सिर्फ़ फ़ैशन या आधुनिकता की बे-सिर पैर की बातें | आखिर यह सब परोस कर क्या उम्मीद की जा सकती है कि यह पीढी आगे चल कर गंभीर साहित्य का पाठक बनेगी | अगर नई पीढी मे अच्छा पढने के संस्कार विकसित करने हैं तो दैनिक पत्रों व पत्रिकाओं को वापस लौटना होगा | अगर इस दिशा मे गंभीरता से न सोचा गया तो एक दिन  किताबो का जादू हमेशा के लिए खत्म हो जाऐगा |

     

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