( एल.एस.बिष्ट ) - यह
चुनाव कई मायनों मे अलग रहा है | दस वर्षों के कांग्रेसी शासन का इस तरह से पटाक्षेप होगा,
इसकी कल्पना राजनीति के बडे-बडे पंडित भी करने मे असफ़ल हुए | बदलाव की एक
सुगबुगाहट जरूर सतह पर दिखाई देने लगी थी लेकिन बदलाव की यह चाहत जनादेश के रूप मे
इस तरह से सामने आएगी, परिणाम आने से पहले सोच पाना मुश्किल था |
यह तो समझा जा सकता है कि दर-असल यह प्रभावशाली जीत कांग्रेस के कुशासन और
निहायत कमजोर व लचर प्रशासन के विरूध्द एक सुशासन और मजबूत सरकार के वादे की जीत
है | लेकिन जिस तरह का जनादेश आया है इसने और भी कई महत्वपूर्ण सवाल खडे किऐ हैं |
क्या यह कम आश्चर्यजनक नही कि देश को प्रधानमंत्री देने वाले उत्तर प्रदेश की 80
सीटों मे एक भी मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव नही जीत सका | यही नही, 20 फ़ीसदी से भी
ज्यादा मुस्लिम आबादी वाले शहरों मे भी भाजपा ने सफ़लता पाई और यहां से भी कोई
मुस्लिम उम्मीदवार ससंद न पहुंच सका |

आखिर यह कैसे संभव हो सका | इस सवाल पर गौर
करें तो पिछ्ले कई वर्षों से धर्मनिरपेक्ष्ता बनाम साम्प्रदायिकता के नाम पर जिस
प्रकार से बहुसंख्यक समाज की भावनाओं से खिलवाड किया जाता रहा है , यह उसी का
प्रतिफ़ल है | दर-असल वोट की राजनीति के तहत कांग्रेस समेत सभी प्रमुख राजनैतिक दल
भाजपा को साम्प्रदायिकता के नाम पर अलग थलग करने का प्रयास करते रहे हैं | देश मे
होने वाले हर छोटे बडे दंगे को भाजपा के सर मढने की जो पुरजोर कोशिश यह तथाकथित
धर्मनिरपेक्ष दल करते रहे हैं उसने कहीं न कहीं बहुसंख्यक समाज को आहत किया | इस
बीच ‘ हिन्दू आतंकवाद ‘ के भूत को भी पैदा करने के प्रयास ने आग मे घी का काम किया
और इसका दर्द सिर्फ़ संघ परिवार तक सीमित
नही रहा बल्कि जन जन तक पहुंचा और यही कारण रहा कि इस चुनाव मे संघ ने इस छ्दम
धर्मनिरपेक्षता के विरूध्द पूरी तरह से कमर कसी |
गौरतलब यह भी है कि मोदी जी को प्रधानमंत्री
पद के लिए घोषित किए जाने के साथ ही मुस्लिम समुदाय द्वारा भाजपा व मोदी का मुखर
विरोध किया जाने लगा और भाजपा उम्मीदवारों को चुनाव मे हराने कि लिए जिस तरह से एक
मुश्त मतदान करने की मुहिम चलाई गई, उसने बहुसंख्यक वर्ग मे भी प्रतिक्रिया को
जन्म देने मे एक भूमिका निभाई | जहां एकतरफ़ भाजपा के विरूध्द एकजुटता होने लगी थी
वहीं दूसरी तरफ़ मोदी के विकास और अच्छे दिनो का नारा बहुसंख्यक कि दिलों मे जगह
बनाने लगा था ऐसे मे मोदी के समर्थकों ने भी एक्जुट होना जरूरी समझा | यही कारण है
कि उत्तर प्रदेश जैसे राज्य मे जहां जातीयता के आधार पर मजबूत ध्रुवीकरण सपा व
बसपा के साथ पिछ्ले कई वर्षों से दिखाई देता रहा है, यकायक बिखर गया | इसने भाजपा
के लिए नही तो कम से कम मोदी के पक्ष मे
मतदान करना बेहतर समझा | इस तरह बहुसंख्यक वर्ग के ध्रुवीकरण ने मुस्लिम वर्ग के ‘
टेक्टीकल वोटिंग ‘ के प्रभाव को शून्य कर दिया
राजनीति के कुछ विश्लेषक यह मानते हैं कि
मुस्लिम बहुल सीटों मे भाजपा की जीत मे मुस्लिम मतों का भी योगदान रहा है , सही नही लगता | दर-असल इसका
कारण सपा व बसपा के मतदाताओं के एक बडे वर्ग का मोदी के पक्ष मे मतदान करना है न
कि मुस्लिम मतों का भाजपा के पक्ष में| अगर उत्तर प्रदेश जैसे राज्य मे मोदी के
जादू से यह जातीय समीकरण न टूटते तो तस्वीर कुछ अलग दिखाई देती |
बहरहाल अब कांग्रेस सहित दूसरे दलों को अपनी
धर्मनिरपेक्ष्ता को नये सिरे से समझने की जरूरत है और यह समझना होगा कि वोट के लिए तुष्टिकरण की नीति
को खारिज कर दिया गया है | दूसरी तरफ़ मुस्लिम समुदाय को भी स्वयं को वोट बैंक बनने
से रोकना होगा और यह तभी सभव है जब वह साम्प्रदायिकता के नाम पर सिर्फ़ और सिर्फ़
भाजपा के विरूध्द अपनी नकारात्मक सोच से मुक्त हो अपने को मुख्य्धारा मे समाहित
करे | उसकी इस सोच का लाभ ही दूसरे दल उठाते रहे हैं | यही कारण है कि आज तक वह
अपने बुनियादी सवालों पर इस देश मे कोई सार्थक बहस न करवा सका | सिर्फ़
धर्मनिरपेक्षता बनाम साम्प्रदायिकता पर उलझ कर रह गये |
अब समय आ गया है कि वह अपने समाज के हित
के बुनियादी सवालों , शिक्षा, रोजगार और
अपनी युवा पीढी के भविष्य को प्राथमिकता दे तथा उनके लिए संघर्ष करे और इन मुद्दों
पर किसने कितना किया के आधार पर मतदान के जरिये अपना समर्थन अथवा विरोध दर्ज करे |
जिस दिन वह इन सवालों पर राजनीतिक दलों से जवाब मांगेगा, वह एक वोट बैंक नही रह
जायेगा | यह इस विशाल लोकतंत्र के हित मे भी होगा |
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