हर सुबह के साथ भारतीय राजनीति का चेहरा कुछ और कुरूप होता जा रहा है । अब इस बात की संभावना कहीं नही दिखती कि यह मूल्यों की राजनीति के अपने पुराने दौर की तरफ वापसी कर सकेगी । दर-असल वोट के माध्यम से जनसमर्थन की अभिव्यक्ति के महत्व ने ही इसे इस स्थिति मे ला खडा किया है ।
क्या यह जानना अफसोसजनक नही होगा कि देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी अब असम मे कन्हैया कुमार को अपना पोस्टर ब्वाय बनाने जा रही है । रोहित वेमुला की आत्महत्या की तस्वीरें भी कांग्रेस के लिए वोट मांगती दिखाई देंगी । कल अगर उमर खालिद का चेहरा भी साम्यवादी दलों के चुनावी पोस्टरों मे दिखाई दे तो कोई आश्चर्य नही ।
वोट राजनीति के इस घिनौने चेहरे को क्या अब भारतीय जनमानस की बदलती सोच का एक संकेत मान लिया जाए या फिर खलनायकों को राजनीति मे महिमा मंडित कर हीरो बनाने की एक घृणित राजनीतिक सोच । क्या अब भारतीय चुनावी राजनीति का दर्शन कुछ इस तरह से बदलने जा रहा है जिसमे गांधी, नेहरू और चरखे को अप्रासंगिक मान लेने की सोच् आकार लेती दिखाई दे रही है ।

यह जानना व समझना भी जरूरी है कि क्या केन्द्र मे गैर कांग्रेसी सत्ता का वर्चस्व दीगर राजनीतिक विचारधाराओं को पारंपरिक चुनावी सोच से हट कर कुछ अलग और नया करने को विवश कर रहा है । अगर ऐसा है तो यह उनके अंदर पनपी राजनीतिक असुरक्षा व हाशिए पर चले जाने की चिंता को भी उजागर कर रहा है ।
बहुत संभव है कि गत आम चुनावों मे जिस तरह से मोदी एक चमत्कारिक छवि के रूप मे पूरे देश को अपने मोह पाश मे बांध एक अकल्पनीय चुनावी जीत के नायक बने उसने गैर भाजपा राजनीतिक दलों मे राजनीतिक असुरक्षा की भावना को पैदा करने मे अहम भूमिका निभाई हो ।
लेकिन कारण कुछ भी हों, अगर चुनावी राजनीति का यह चेहरा सामने आता है तो शायद भविष्य मे देश के अंदर सच्चे हीरो बनने की नही बल्कि विलेन बनने की भी एक होड आकार लेती दिखाई देगी और यह देश हित के नजरिये से ताबूत मे एक और कील साबित होगी ।
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