
' दुनियादार ' हो जाने वाला युवाओं का यह वही वर्ग है जो किसी भी ऐसे व्यावसायिक पाठयक्र्म में प्रवेश के लिए तैयार है जो उन्हें अच्छी जिन्दगी की गारंटी दे सके । इनकी ' अच्छी जिंदगी ' की परिभाषा में शामिल है ढेर सारा रूपया, आलीशान बंगला, कार, नौकर-चाकर और विदेश यात्राओं की संभावनाएं । सच तो यह है कि , सम्मानजनक जीविका, का मतलब अब महज पैसों तक सीमित रह गया है । यही कारण है कि हाल में किए गये कुछ अध्ययन यह स्पष्ट संकेत दे रहे हैं कि नई पीढी अधिक आय और सुविधाओं वाले व्यवसायों की ओर आकर्षित हो रही है । यहां तक कि भारतीय रक्षा सेवा जैसे सम्मानजंनक क्षेत्र की ओर भी अब युवाओं का रूझान नहीं रहा ।
बात सिर्फ पैसे या सुविधापूर्ण जिंदगी की ही नही है बल्कि दुनियादारी या ' प्रैक्टिकल ' हो जाने के नाम पर उस मानसिकता की भी है जिसके तहत यह समझा जाने लगा है कि पैसा कमाया नहीं बनाया जाता है । प्र्त्येक छोटे बडे काम के लिए ' सेटिंग ' करना इन्हें अनिवार्य लगने लगा है । इनका एक्मात्र उद्देश्य येन-केन प्रकारेण सफलता के शिखर तक पहुंचना है । इस शिखर तक पहुंचने के लिए गलत और सही रास्तों का चयन इनके लिए कोई खास मतलब नहीं रखता । दूसरों को लंगडी मार आगे बढ जाने वाले ऐसे युवा विशुध्द व्यक्तिगत स्वार्थ को ही जीवन का आदर्श मानने लगे हैं ।
दर-असल जमाने की नब्ज पकड लेने का दंभ भरने वाले ये युवा इस तथ्य से बेखबर हैं कि इनकी जीवन शैली एक व्यवस्थित मानवीय समाज के ताने बाने को छिन्न-भिन्न करने लगी है । अपने को आज के दौर मे ' प्रैक्टिकल ' कहने वाला यह वर्ग दर-असल मानवीय जीवन की बुनियादी तल्ख सच्चाइयों से हटकर स्वयं अपने लिए एक ऐसा जाल बुनने लगा है जिसमें देर-सबेर उसे स्वयं फंसना है लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि इनकी ' एप्रोच ' ने सतही तौर पर ऐसा परिवेश तैयार कर लिया है जो दूसरों को भी लुभाने लगा है ।
इस तरह आदर्शों और मूल्यों से कट कर एक बडी भीड़ ' दुनियादार ' बनने की प्रक्रिया से गुजरने लगी है । इस तथाकथित ' प्रैक्टिकल ' युवा वर्ग के कमजोर जमीन पर खडी उपलब्धियों को देख कर युवा पीढी का एक बडा हिस्सा ऐसा भी है जो सबकुछ पा लेने के प्रयास में अजीब मन: स्थिति का शिकार होकर रह गया है । दर-असल तथाकथित प्रैक्टिकल युवाओं को सुविधाजनक स्थिति में देख कर वह भी उन्हीं मूल्यों को आत्मसात करने की कोशिश तो करता है लेकिन उसकी बुनियादी सोच जिसमें अभी आदर्शों और मूल्यों के लिए जगह शेष है, उसे दुनियादार बनने से रोक देती है । अंतत: वह कुंठित होकर समाज, व्यवस्था और परिवेश को कोसने लगता है ।
कुल मिला कर देखें तो इस दौर की यह सबसे बडी त्रासदी है कि वह युवा जिनमें आदर्शों और मूल्यों के लिए संघर्ष करने की मजबूत इच्छा शक्ति होनी चाहिए थी, इन्हें दरकिनार कर येन केन प्रकारेण अपनी उपलब्धि का परचम लहराने को आतुर दिखाई दे रहा है । जीवन के प्रति जिस द्र्ष्टिकोण को वह आज ' प्रैक्टिकल एप्रोच ' मान आगे बढने के लिए अपनी सारी ऊर्जा होम कर रहा है वह वस्तुत: उसे एक अंधी गली की तरफ ही ले जा रहा है लेकिन विडंबना यह है कि वह इससे बेखबर है ।
दर-असल आज वह सब कुछ जल्द से जल्द पा लेना चाहता है । इस होड़ में वह यह भी भूल गया है कि शिखर तक पहुंचने के लिए एक निश्चित दूरी अवश्य तय करनी पड़ती है । जमीन से शिखर तक की दूरी तय किये बिना सीधे उडकर शिखर में परचम लहरा देने की उपलब्धि कभी स्थायी व ठोस नहीं हो सकती । इस मनोवृत्ति का ही परिणाम है कि शिखर पर पहुंचने के बाद भी जीवन के उतार-चढाव का एक हल्का सा झोंका इन्हें अवसाद और टूटन की गहरी खाई में धकेल देता है । इसलिए आज की भौतिक चकाचौध के बीच भी यह समझ लेना जरूरी है कि आदर्शों , मूल्यों और श्रम की ठोस जमीन के अभाव में प्राप्त की गई उपलब्धियां अंतत: उन्हें स्थायी संतुष्टि न दे सकेंगी । दुनियादार बन ' प्रैक्टिकल एप्रोच ' से अर्जित कोई भी सफलता किसी न किसी मोड़ पर दुख और पीड़ा का कारण बनती हैं । इसलिए शिखर तक पहुंचने के लिए रास्ता लंबा और कठिन ही सही लेकिन सही अर्थों में ठोस, स्थायी और सच्ची सफलता इस रास्ते से गुजर कर ही मिल सकती है । पा लेने का सच्चा सुख भी इसी में निहित है ।
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