शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

सपने में सच (मेरी यह लघुकथा दै.जागरण 14 जुलाई, 1985 को प्रकाशित हुई थी )

     सपने में सच  (मेरी यह लघुकथा दै.जागरण 14 जुलाई, 1985 को प्रकाशित हुई थी )





      वह सुबह बिस्तर से उठी । उसका चेहरा आज उदास नहीं था । आज क्यों इतना खुश है रेनू , मां ने पूछा । “ मैने आज एक सपना देखा मां ।“ क्या देखा तूने , मां ने पूछा । कोई बहुत सुन्दर राजकुमार जैसा ....सफेद घोड़े में बैठ कर ...”। ऐसा कुछ तो मैने भी देखा , मां ने कहा । “ तुमने क्या देखा मां ¿ उसने पूछा । “ बिल्कुल ऐसा ही लेकिन पता नहीं क्यों शादी के बीच मे ही झगड़ा होने लगा । तुम्हारे बापू जोर जोर से कुछ कहने लगे और फिर नींद खुल गई ।“बापू आपने भी कुछ देखा । उसने चहकते हुए पूछा । हां बेटे । “ मैने लड़के वालों से झगड़ा होने के बाद भी देखा , बापू ने कहा । “ तब तो ये सपना जरूर सच होगा न “ उसने मासूमियत से कहा । “ नही नही बेटे ऐसा नही कहते।“ कहते हुए बापू का चेहरा उदास हो गया ।

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